जब भी आदिवासी समाज की महिलाओं की बात होती है तो विश्व के अनेक मानवशास्त्री समानाधिकार-वादी विचारधारा वाले आदिवासी समाज को अपने कृतियों में अहम स्थान देते हैं। शैक्षिक चर्चा में आदिवासी महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त है। पर क्या इन समानाधिकार वाले समाज में सच में महिलाओं की स्थिति वैसा ही है जैसा हमें दिखता या दिखाया जाता है? यह लेख इसी द्वन्द पर आधारित है।
क्षेत्र अध्ययन के लिए जब कभी ठेठ देहात में रुकता हूँ तो प्रातः कल ‘ढ़ेंकि’ के आवाज से नींद टूटती है। मुँह अंधेरे, घर की महिलाएँ धान कूटने में लग जाती हैं। सूर्य-उदय से पहले फिर वही महिलाएँ जंगल की ओर निकल पढ़ती हैं। जब तक पुरुष पूरी तरह जगते हैं, तब ये महिलाएँ जंगल से वापस लौट रहीं होतीं हैं। सर पर बोझा लिए, कभी कभी एक नन्हे को बेतरा किए वो दायित्वों का निर्वाहन करतीं हैं। उसके बाद बर्तन-बासन एवं अन्य गृह कार्य, घर के मवेशियों को चारा पानी या गोबर को खाद-गढ़ा तक ये ही पहुँचाती हैं। ‘केलवा’ से पहले फिर खेत की ओर और फिर दोपहर बाद फिर जंगल या ‘बारी’ में कार्य करती हैं। शाम को फिर भोजन व्यवस्था। रात जब आँगन में साथ में आग तापा करता था तब जा कर उनको फ़ुरसत में देखता था। ‘बीड़ी और हुक्का’ का दौर चलता था। बैठक में इतने संघर्ष के बाद भी जो स्वछंद खिलखिलाहट और हंसी सुनने को मिलती थी वह अदभुत सुकून देती थी। एक प्रश्न हमेशा हैरान परेशान करती है। कौन अधिक खुश है? वह शहरी, जो भौतिकता वाद में पूर्ण रूप से डूबा हुआ है या ये, जो सीमित साधन में, संघर्ष में भी खुश हैं, संतुष्ट हैं?
बहरहाल, आदिवासियों के आर्थिक जीवन को हम निकट से देखें तो मेरा मानना है कि महिलाओं का योगदान पुरुषों से अधिक है। इस सीमित चर्चा में मैं दो प्रमुख पक्षों को रखना चाहूँगा। एक पक्ष में यह स्पष्ट करूँगा कि कैसे ‘चालाक पुरुष जाति’ ने कूटनीति के द्वारा उन्हें बराबर का अधिकार नहीं दिया। दूसरे पक्ष के अनुसार कैसे आदिवासी समाज में महिलाओं को समान अधिकार समाजिक सांस्कृतिक कारकों के कारण नहीं मिला या अब भी नहीं मिल सकता।
आदिवासी समुदायों में दो निषेधों की चर्चा करूँगा। पहला, महिलाएँ खेती के औज़ार का प्रयोग नहीं कर सकतीं और दूसरा, घर के छत छार नहीं सकती। यानी, जीविका और भोजन के लिए पुरुषों पर निर्भरता और निवास स्थान के लिए भी। पुरुष प्रधान आदिवासी समाजों में इस प्रकार का निषेध एक कूटनीति ही तो है। समाजिक विज्ञान के विश्लेषण के अनुसार महिलाओं के इस निर्भरता के कारण परिवार विखंडन से बचता है।
दूसरा पक्ष जिसमें आदिवासी महिलाओं को समान अधिकार नहीं मिला है उसका संयम से विश्लेषण आवश्यक है। महिलाएँ ईश्वर की अनुपम रचना हैं और जैविक रूप में वही अपने गर्भ में शिशु को धारण कर सकती हैं, जन्म के बाद दूध पिला सकतीं है और सफलतापूर्वक लालन पालन कर सकतीं हैं। यहाँ ये अतुलनीय हैं। जैविक से हट कर जब हम इनकी समाजिक भूमिका का विश्लेषण करते हैं, तभी असमानता अधिक स्पष्ट होती है।
इस सीमित चर्चा में दो मुद्दों पर पक्ष रखूँगा। पहला, प्राकृतिक पूजक आदिवासी समुदायों में आदिवासी महिलाओं का असमान धार्मिक अधिकार और दूसरा संपत्ति पर अधिकार। विगत कुछ वर्षों को छोड़ देंतो इनका सरनास्थल में प्रवेश तक निषेध था। पुरखा पूजा में महिलाओं की भागीदारी नहीं होती है। इसका एक ठोस कारण है। पुरखा पूजा आदिवासी आस्था का अविभाज्य तत्व है। इन पुरखों का घर समाज को रोगमुक्त, संकट मुक्त एवं समृद्ध रखने में विशेष भूमिका होती है। ‘गोहराने’ की प्रक्रिया में विशेष सतर्कता बरती जाती है। घर के पुरुष मुखिया एक एक कर के प्रत्येक पुरखेको याद करता है और उनसे घर परिवार, खेत खलिहान, पशु पक्षी, जंगल पहाड़, वर्षा इत्यादि के लिए याचना करता है। अब चूँकि, यह आदिवासी समाज पुरुष प्रधान है तो समाजिक निषेध के कारण महिला अपने ससुराल में अपने से वरीय पुरुष का नाम नहीं ले सकती है। दूसरा
कारण यह है कि चूँकि वह विवाह के बाद आयी है तो पूजा के समय वह पुरखों का नाम क्रमबद्ध लेने में चूक कर सकती है। इससे पुरखे नाराज हो सकते हैं और परिवार पर विपदा आ सकती है। इस कारण से महिलाओं को समान धार्मिक अधिकार आदिवासी समुदाय में प्राप्त नहीं है।
हाल में आदिवासी महिलाओं का पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार चर्चा का विषय रहा है। विश्व आदिवासी समाज संपत्ति को दो रूप में देखता है- चल और अचल संपत्ति। नाईजीरिया के ‘याको जनजाति’ और सूडान के ‘नुएर जनजाति’ पशुपालक हैं और उनमें महिलाओं को चल संपत्ति में बराबर का अधिकार प्राप्त होता है। असल विडंबना तब आती है जब अचल संपत्ति की बात होती है और वह भी विशेषकर जब वह भूमि केंद्रित हो।
आइए एक काल्पनिक स्थिति पर चर्चा करें। मैं उराँव समुदाय से हूँ और स्थायी कृषि पर आधारित हूँ। मेरी बहन या बेटी का विवाह मैंने सुदूर गाँव में कर दिया है। यदि पैतृक संपत्ति का बँटवारा हुआ तो मेरी बहन को भूमि, अधिकार द्वारा प्राप्त होगा। अब उसके पास दो विकल्प है। या तो ससुराल से वह मेरे गाँव कृषि के लिए आए जो अव्यवहारिक लगता है या वह उस भूमि को बेच दे। ऐसी परिस्थिति में मात्र मेरे घर का ही नहीं किंतु पूरे गाँव का समाजिक और आर्थिक संरचना धराशायी हो जाएगा। याद रखें मैं अभी चर्चा में मात्र पैतृक सम्पत्ति की बात कर रहा, अर्जित संपत्ति की नहीं। वहीं आदिवासी समाज में अविवाहित स्त्री या विधवा को पैतृक संपत्ति में अनंत काल तक जीने खाने का अधिकार है।
अध्ययन के लिए अपने छात्रों के साथ अनेक बार दुर्गम क्षेत्रों में गया हूँ। ऐसे ही एक घटना साझा करना चाहता हूँ। सुदूर तोरपा के घने जंगलों से घिरे एक गाँव जाना हुआ था। रास्ते में एक मनोरम नदी के किनारे थोड़े समय के लिए हम सब रुके। एक ग़ैर आदिवासी छात्र ने नदी की ओर रुख कर के कहा- ‘अरे यहाँ तो पैसा ही पैसा है’। बाक़ी छात्र अगल बगल झांकने लगे। तब उस छात्र ने स्पष्ट किया कि- तुम सब को नदी का बालू नहीं दिख रहा है? यहाँ एक महत्वपूर्ण बात है जिसे सभी को समझने की आवश्यकता है। आदिवासियों के लिए जमीन, नदी, जंगल और पहाड़ ‘बिक्री की वस्तु’ नहीं है। ये उनके जीवन का अभिन्न अंग है। बड़े बड़े विद्वान, जन प्रतिनिधि, नीति निर्माता इस अवधारणा को ना तो समझने का प्रयास करते हैं और ना ही आदिवासियत की इस गूढ़ भावना को विकासात्मक योजना में आत्मसात करते हैं। माननीय न्यायालय में ऐसे अनेक फैसले आये जिनमें हराधन बनाम झारखंड राज्य, नरासुअप्पा मोली, मधुकिश्वर बनाम बिहार राज्य एवं सबरीमाला निर्णय का आप सभों को अवलोकन करना चाहिए।
इसी विषय पर अपने अंग्रेज़ी के आलेख- ‘नॉट सो इगैलिटेरीयन’ में मैंने स्पष्ट किया कि मात्र अचल संपत्ति या धार्मिक असमानता को दूर कर के समानता नहीं लायी जा सकती है। इसके अलावा भी आदिवासी समाज में महिलाओं के संदर्भ में अनेक विसंगतियाँ एवं चुनौतियाँ हैं जिन पर त्वरित
ध्यानाकर्षण अपेक्षित है। क्या हमारे आदिवासी समाज में महिलाओं को प्रजनन में स्वतंत्र निर्णय का अधिकार है? गाँव में यह आम दृश्य है कि एक शिशु पीठ में है तो दूसरा हाथ पकड़ के चल रहा है।
समाज में यदि महिला समानता लाना है तो हमें उनकी शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक दृढ़ता, अच्छी शिक्षा, उच्च मनोबल के लिए सम्मिलित प्रयास एवं सहयोग करना होगा। हमारा उनके प्रति संवेदनशील हो जाना ही एक बड़ा योगदान होगा। एक शिक्षित महिला स्वयं में सबल है। जिस प्रकार वह अपने भीतर एक जीवन सृजन एवं संरक्षण करने की ईश्वरीय क्षमता रखती हैं, ठीक उसी प्रकार उसमें एक परिवार और समाज को भी सृजित और संरक्षित करने की क्षमता है। यह ‘पुरुष’ के बस की बात नहीं।
लेखक परिचय:
डॉ. अभय सागर मिंज एक अंतर्राष्ट्रीय-स्तर के जाने-माने शिक्षाविद हैं, जो संप्रति डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय (रांची) के मानवशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक के तौर पर कार्यरत हैं। आदिवासी समाज में महिलाओं के समान अधिकार नहीं मिलने के कारणों को पड़ताल करता उनका यह बहुचर्चित आलेख 26 अगस्त 2022 को प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है।