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इतिहास में आदिवासियों की भूमिका के साथ न्याय नहीं होना दुखद: चंपई सोरेन

रांची। भारत के इतिहासकारों ने आदिवासियों के संघर्ष, इतिहास व आंदोलनों को सही मायनों में लिपिबद्ध नहीं किया है। साथ ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने जनजातीय इतिहास को कम आंकने का प्रयास किया है। यह बातें परिवहन एवं आदिवासी कल्याण मंत्री चंपई सोरेन ने मंगलवार को मोरहाबादी स्थित डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान में हुए राष्ट्रीय सेमिनार में विशिष्ट अतिथि के रूप में कहीं। इस सेमिनार का आयोजन झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा और टीआरआई ने संयुक्त रूप से किया।

चंपई सोरेन ने कहा कि लंबे संघर्ष के बाद झारखंड राज्य मिला है, इसके पीछे लंबी कहानी, लंबा इतिहास, लंबी लड़ाई एवं कुर्बानियों की लंबी सूची रही है। उन्होंने कहा कि झारखंड राज्य के गठन की कहानी आजादी की लड़ाई के समय से लिखनी शुरू हो गयी थी, चाहे वह बिरसा मुंडा का आंदोलन हो या फिर हूल संथाल विद्रोह, आजादी के बाद इसका स्वरूप बदलता चला गया।

उन्होंने कहा कि आदिवासी कभी किसी के गुलाम नहीं बने, किसी की गुलामी मंजूर नहीं की। देश की आजादी की लड़ाई में इसकी झलक मिल जाती है। पूरे दुनिया में आदिवासी ही एक ऐसा समुदाय है जिसमें जात-पात, ऊंच-नीच नहीं चलता है। विवाह में दहेज प्रथा नहीं चलती है। पुराने जमाने में, जब आदिवासी लोग शिकार करने जाते थे तो साथ में कुत्ते भी जाते थे, और शिकार के बाद कुत्ते को भी उसका हिस्सा मिलता था।

हमारी सरकार ने हर गांव व आदिवासी बहुल इलाकों में धुमकुड़िया निर्माण करने की योजना बनाई है, ताकि गांव के लोग इस भवन में एकत्रित हों और अपने सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा और मंथन करें। हमें सामाजिक व्यवस्थाओं को सजाना होगा, ताकि लोग दिग्भ्रमित न हों और आगे बढ़ने में सभी की भूमिका निर्धारित हो।

इस सेमिनार में निर्णय लिया गया कि 1921 में पहली बार आदिवासियों ने ब्रिटिश शासित भारतीय विधायिका और संसदीय लोकतंत्र में हस्तक्षेप किया था, उनकी जीवनी और योगदान का दस्तावेजीकरण होगा, ताकि आने वाली पीढ़ी उनके बारे में जान सकें। इससे पूर्व स्वागत भाषण देते हुए अखड़ा की महासचिव वंदना टेटे ने कहा कि 1921 में पहली बार आदिवासियों को भारतीय विधायिका में सामान्य निर्वाचन क्षेत्र और आरक्षित मनोनयन के द्वारा शामिल होने का सीमित अवसर मिला। जहां से जमीनी संघर्ष के साथ-साथ उनके विधायी संघर्ष का नया इतिहास शुरू होता है। इसी वर्ष गठित बिहार-ओडिशा गवर्नर लेजिस्लेटिव काउंसिल का भी शताब्दी साल है। कार्यक्रम में धन्यवाद ज्ञापन संस्थान के निदेशक रणेंद्र ने किया।

जमीनी स्तर पर संघर्ष करने वाले नेताओं को पहचानने की जरूरत
सेमिनार के संयोजक सह आदिवासी विषयों के स्टोरीटेलर अश्विनी पंकज ने कहा कि हमें जमीनी स्तर पर संघर्ष करने वाले जनप्रतिनिधियों को पहचानने की जरूरत है। ढुलू मानकी ने पहली बार विधानसभा में अविभाजित बिहार झारखंड में कॉलेज खोलने की मांग की थी। साथ ही उन्होंने घास काटने से लेकर जल, जंगल, जमीन पर आदिवासियों की हिस्सेदारी पर आवाज उठायी थी। अश्विनी ने कहा कि ठेबले उरांव पहले सांसद जरूर बने, परंतु सही मायने में आदिवासियों के बीच जमीनी स्तर पर कार्य करने वाले अन्य जनप्रतिनिधि हुए। इनमें इग्नेस बेक, पतरस हुरद, शावमेल पूर्ति, थियोडोर सुरीन, प्यारा केरकेट्टा, बोआस, मार्शल कुल्लू, कोल्हान से सुरेंद्र नाथ बिरूवा, लोपो देवगम, गारबेट कैप्टन मानकी, सिदू हेम्ब्रम, कानूराम देवगम, संथाल से भादो हेम्ब्रम, फागु हेम्ब्रम, सागाराम हेम्ब्रम, मोहा मरांडी, डोबोरा टुडू शामिल हैं, जिन्होंने आदिवासी महासभा के गठन में अहम भूमिका बनाई थी।

आदिवासियों के कस्टमरी लॉ को भी मिले मान्यता
ढुलू मानकी के परपोते सोनाराम देवगम ने कहा कि जिस तरह हिंदू लॉ, मुस्लिम पर्सनल लॉ है, उसी तरह आदिवासियों के कस्टमरी लॉ को भी मान्यता मिलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र को स्थापित करने में आदिवासियों का महत्वपूर्ण स्थान है। आदिवासियों के योगदान, वीरगाथा जिसकी उपेक्षा हुई है, उसे संकलित कर शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में शामिल करने की जरूरत है।

इस सेमिनार में ऑनलाइन माध्यम से आइएचडी दिल्ली के प्रोफेसर वर्जिनियस खाखा, एमपी के विधायक हीरालाल अलावा, टीआईएसएस गुवाहटी असम के प्रोफेसर जगन्नाथ अम्बागुड़िया ने विचार रखे। इसके अलावा टीएसी पूर्व सदस्य रतन तिर्की, विनोद कुमार, विनीत मुंडू, सुधीर पाल, डॉ दयमंती सिंकू सहित अन्य लोगों ने कार्यक्रम को संबोधित किया।

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