यह कहानी रांची के मुड़मा (मांडर) से शुरू होती है, जहां के एक आदिवासी बच्चे (संजय कुजूर) ने सपने तो बहुत बड़े बड़े देखे थे, लेकिन नियति ने कम उम्र में ही उसके सिर से माता-पिता का साया छीन लिया। लेकिन वो कहते हैं ना कि “अगर आप किसी चीज को शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात तुम्हें उससे मिलाने में लग जाती है।”
ऐसे हालात में उसके बड़े भाई (अजय कुजूर) ने उसे पढ़ाने की बीड़ा उठाया, लेकिन इस किसान परिवार की आर्थिक स्थिति बार बार साथ छोड़ देती थी और हर बार पैसों के अभाव में पढ़ाई भी रुक जाती थी। बड़ी मां ने कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी। फिर उसे कुछ ऐसे मार्गदर्शकों का साथ मिला, जिन्होंने उसे आगे बढ़ने की राह दिखाई।
अपने गांव के सरकारी मिडिल स्कूल (हिन्दी मीडियम) से प्राथमिक शिक्षा लेने के बाद संजय ने नामकुम स्थित किशोर नगर ने 10वीं की परीक्षा पास की। आर्थिक अभाव से जूझ रहे इस छात्र की पढ़ाई फिर रुकी, लेकिन हौसला नहीं टूटा। मारवाड़ी कॉलेज रांची से इंटरमीडिएट करने के बाद, फिर एक बार आंखों के सामने अंधेरा छा गया।
लेकिन तब संजय को झारखंड सरकार की ई-कल्याण छात्रवृत्ति के तौर पर एक सहारा मिला। इस छात्रवृति के सहारे उसने सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड से Geo Informatics में बीटेक + एमटेक का इंटीग्रेटेड कोर्स पूरा किया। इस दौरान, जब कभी भी पैसे घटते, तब उसके भैया भेजते थे। एक किसान के तौर पर, उनकी आय भी ज्यादा नहीं थी, लेकिन उन्होंने काफी सहयोग किया।
इस कोर्स को करने के बाद संजय ने परिवार को सहारा देने के लिए नौकरी की। उस दौरान आय बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन दिल के किसी कोने में उच्च शिक्षा का सपना हिलोर मार रहा था। इसी दौरान संजय को झारखंड सरकार की मरांग गोमके पारदेशीय छात्रवृति योजना के बारे में पता चला, जिसके तहत राज्य सरकार आदिवासी, दलित, पिछड़े एवं अल्पसंख्यक छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजती है। इसमें आवेदन देने के बाद उनका जीवन पूरी तरह बदल गया।
संजय बताते हैं – “जिस दिन मुझे यह छात्रवृति मिली, उस रात सो नहीं पाया। समझ ही नहीं पा रहा था कि यह सच है या सपना। तब तक मुझे रांची ही बड़ा शहर लगता था, लेकिन यहां आकर लगा कि किसी और दुनिया में आ गया। जब पहली बार लंदन के लिए निकला तो साथ में चावल, दाल, सुखा साग समेत कई चीजें रख लिया था, क्योंकि यहां के बारे में कुछ भी नहीं पता था।”
बहरहाल, वक्त ने करवट ली और साल 2003 में अपनी माता स्व. उर्षेला तिग्गा एवं 2011 में अपने पिता स्व. दाऊद कुजूर को खो चुका यह छात्र आज लंदन के एक अग्रणी विश्वविद्यालय से एमएससी (ज्योग्राफिक डेटा साइंस) की डिग्री ले चुका है। संजय के शब्दों में – “मेरे माता पिता नहीं हैं। मैंने गरीबी एवं अभावों को नजदीक से महसूस किया है, लेकिन यकीन मानिए आज मेरे माता-पिता जहां कहीं भी होंगे, मुझे देख कर खुश होंगे। उनके आशीर्वाद से अभी बहुत लंबा सफर तय करना है।”
मांडर से लंदन की इस यात्रा का श्रेय किसे देंगे, इस सवाल पर संजय भावुक हो गये – “अभी तक की इस शैक्षणिक यात्रा में किशोर नगर के फादर विक्टर वनबोरटल से लेकर यूके में प्रो. राहुल रंजन तक, कई मार्गदर्शक मिले, उन सबको धन्यवाद देना चाहूंगा। वैसे सबसे बड़ा श्रेय जाता है झारखंड सरकार को, तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जी को तथा तत्कालीन कल्याण मंत्री (अब मुख्यमंत्री) चंपई सोरेन जी को, जिनके सहयोग के बिना शायद विदेश में शिक्षा का सपना देखना भी संभव नहीं था।”
अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में उन्होंने बताया कि अब लंदन के किसी यूनिवर्सिटी से जंगल एवं पर्यावरण जैसे किसी विषय पर पीएचडी करना है। उसके बाद 1-2 साल का नौकरी में अंतरराष्ट्रीय अनुभव लेने के बाद, अपनी माटी, अपने झारखंड की ओर लौट जाना है – “झारखंड ने मुझे जो कुछ दिया, उस के बदले में, यहां के लोगों एवं अपने आदिवासी समाज के लिए कुछ भी कर पाना मेरा सौभाग्य होगा।”