उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में आदिवासी समुदाय की महिला आरती थारू सिर्फ पांचवीं पास हैं और आज वे थारू समुदाय की 10 हजार महिलाओं को हस्तशिल्प कला के गुर सिखाकर रोजगार मुहैया करा चुकी हैं। उनके इस काम के लिए उन्हें कई बड़े सम्मान मिल चुके हैं। आरती ने यह कमाल कैसे कर दिखाया, पढ़ें उनकी कहानी उनकी जुबानी।
छुप-छुप कर की पांचवी तक की पढ़ाई
मंगलपुरवा में मेरा जन्म हुआ और गांव के माहौल में लड़कियों के पास आजादी का कोई संविधान नहीं होता। मुझे बचपन से पढ़ने-लिखने की बहुत इच्छा थी, लेकिन बाबा ने पढ़ने ही नहीं दिया। जब भी जिद करती तो यही कहते- शादी के बाद तो तुम्हें चुल्हा चौका ही फूंकना है, तो पढ़कर क्या करोगी? फिर भी मैंने छुप-छुप कर पांचवी पास की। जिस दिन बाबा को मालूम पड़ जाता कि मैं स्कूल गई तो घर पर डंडा संभाल कर रखते।
इसी माहौल में बचपन तो काट लिया, लेकिन जवानी पहाड़ जैसी लगने लगी। हम चार बहनें और एक भाई होने के बाद, हमारा परिवार पहले ही समाज के ताने-बानों में फंसा था। पर पिता के विचार बहुत अच्छे थे, यही वजह थी कि वे मानते थे कि लड़कियों की शादी जल्दी नहीं होनी चाहिए उन्हें पढ़-लिखकर कुछ काम करना चाहिए।
30 की उम्र में की शादी
जब तक शादी नहीं हुई तब गांव वालों के लिए मैं किसी ‘बुरी औरत’ से बुरी नहीं थी। हमारे गांव में रिवाज था कि लड़की पांच साल की हो जाए और उसका कन्यादान कर दो, लेकिन मैंने 30 की उम्र में आकर शादी की। अब मेरा पता लखीमपुर खीरी जिला मुख्यालय से लगभग 100 किलोमीटर दूर पलिया ब्लॉक का गोबरौला गांव है।
कुछ यूं शुरू हुआ स्वतंत्र सफर
शादी से पहले मैं रोज लोगों के तानों को पीती और फिर एक दिन साल 1997 में जनजाती परियोजना कार्यालय में जाना हुआ। वहां थारू बच्चों के लिए सिलाई की ट्रेनिंग होती थी। वहां मैंने भी सीखना शुरू किया। उस समय मुझे डेढ़ सौ रुपए मिलते थे। सीखते-सीखते मास्टर ट्रेनर बन गई। इसके बाद 2008 में विश्व प्रकृति निधि भारत (WWF) एवं टाईगर रिजर्व से जुड़ी। इनसे जुड़ना भी ऐसे हुआ कि मेरे घर में एक ही हैंडलूम था जिस पर हम काम कर रहे थे और फिर एक बार दुधवा नेशनल पार्क (डब्लूडब्लूएफ) की एक टीम विजिट करने आई तो उन्होंने मेरा भी काम देखा और कहा कि आप 10 महिलाओं का ग्रुप बना लें, इसके बाद हम मदद करते हैं।
रानी लक्ष्मीबाई वीरता और नारी शक्ति सम्मान
2015 में यहां के डीएम गौरव दयाल की पत्नी अपने हस्बैंड के साथ हमारे गांव में घूमने आईं। उन्हें थारू लोगों का जीवन देखना था। यहां आने के बाद उन्होंने मेरा काम देखा और उन्होंने तुरंत मेरी मदद की। उन्होंने मुझे और महिलाओं को जोड़ने की सलाह दी। ब्लाक अधिकारियों के मुताबिक, मुझे अपने साथ वे महिलाएं जोड़नी थीं, जिनके पास बीपीएल कार्ड हो, लेकिन सभी महिलाओं के पास यह कार्ड नहीं था।
दूसरा, पुरुष समाज महिलाओं को आगे बढ़ने ही नहीं देना चाहता था। फिर मैंने डीएम साहब को ये परेशानी बताई और उन्होंने कहा आप बिना बीपीएल कार्ड के समूह बनाएं। इसके बाद मैंने 508 महिलाओं को रोजगार दिलाया। इस उपलब्धि के बाद मुझे 2016 में रानी लक्ष्मीबाई वीरता पुरस्कार दिया गया। अब तेजी से महिलाओं के समूह बने और मैंने उत्तर प्रदेश राष्ट्रीय ग्रामीण मिशन के अंतर्गत 350 स्वयं सहायता समूह बनाए। एक जनपद एक उत्पाद के अंतर्गत मैंने दो हजार महिलाओं को जोड़ा तो पिछले साल आठ मार्च को उत्तर प्रदेश सरकार ने नारी शक्ति पुरस्कार दिया।
46 में से 44 गांव की महिलाएं जुड़ी हैं
मेरे पलिया ब्लॉक में थारू समुदाय के 46 गांव हैं और आज मेरे पास 44 गांव की महिलाएं जुड़ी हैं। आज कुल 10 हजार महिलाएं अपने-अपने घरों में कुटीर उद्योग लगाकर काम कर रही हैं। इन 10 महिलाओं को जोड़ने पर नारी शक्ति पुरुस्कार राष्ट्रपति की तरफ से इसी साल मिला। हम लोग दरी, थारू पेजवर्क, थारी कसीदाकारी, मूंज, जूट आदि के प्रोडक्ट्स बनाते हैं।
दिल्ली से लेकर लखनऊ तक बजा डंका
अपने काम की वजह आज पूरा भारत घूम रही हूं। पहली बार गोवा फ्लाइट में बैठकर गई। पहली बार फ्लाइट बैठने पर डर तो लग ही रहा था। एअरपोर्ट देखकर ही चौंक गई थी। वहां सीट बेल्ट लगाने को कह रहे थे और मुझे लग रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि इसे लगा लूं और फिर ये खुले ही न। मैं घर ही न पहुंच पाऊं। अब मैं दिल्ली, राजस्थान, जयपुर, लखनऊ सभी जगह हमें हमारे प्रोडक्ट्स के साथ बुलाया जाता है।
आज भी सीखना जारी है…
आज मेरे दो बेटे हैं और पति भी साथ ही काम करते हैं। अब मैं हर महिला को यही कहना चाहूंगी कि हर महिला को काम करना जरूरी है। आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने पर ही वे देश नहीं विदेश भी घूम सकती हैं। अगर मन में विश्वास है तो उनके सारे काम पूरे होंगे। मुझे पहले थारू आती थी, फिर हिंदी सीखी अब इंग्लिश बोलने की कोशिश है। सफलता के साथ-साथ मेरे सीखने की प्रक्रिया भी तेजी से चालू है। अब मुझे बहूत दूर जाना है। (दैनिक भास्कर)