Connect with us

Hi, what are you looking for?

Adiwasi.com

Culture

ध्यान दें आदिवासी युवा

मेरे आलेख से आदिवासी समुदाय के ही अनेक लोग असहज हैं। उन्हें लगता है कि आदिवासी समुदाय बहुत ही समृद्ध है और जितनी कमियाँ मैं दिखाने का प्रयास करता हूँ, उतनी नहीं है। किंतु मुझे लगता है कि इस प्रकार के आत्म प्रशंसा, या अन्य समाज के द्वारा बड़ाई, जहां हमारे जीवनशैली को सर्वोच्च और अनुकरणीय बताया जाता है, हमें भावनात्मक रूप से मूर्ख बनाने का कार्य करती है। ‘आदिवासियत की संपन्नता’ और ‘यथार्थ जमीनी हकीकत’ के साथ तुलनात्मक समीक्षा अत्यंत आवश्यक है। हम एक शुतुरमुर्ग के जैसा व्यवहार करने लगते हैं, जहां हमें लगता है कि यदि हमने अपनी आँखें बंद कर ली तो कोई हमें देख नहीं सकता। विश्व के आदिवासी जीवनशैली को सर्वोच्च बताया जाता है और दुनिया के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए इसे अपनाने के लिए जोर दिया जाता है। यह एक मिथ्या प्रतीत होती है। सत्य यह है कि आदिवासी जीवन शैली को लोग सराहते हैं, किंतु यथार्थ में उसे अपने जीवनशैली में अपनाना कोई नहीं चाहता है। दूर की बात क्यों करूँ, हमारे स्वयं के शहरी क्षेत्र के आदिवासी इस से परहेज करते हैं। दूसरा, यदि जनजातीय ‘लाभ’ हटा दिया जाए तो मेरा मानना है कि शायद ही कोई आदिवासी बनना चाहेगा।

आदिवासियत की संपन्नता निश्चित हमें गौरवान्वित करती हैं और यह होना भी चाहिए। लेकिन इस भुलावे में हम कभी ना रहें कि हमारे समाज में सब कुछ अच्छा है। प्रत्येक समाज का अस्तित्व उनके युवाओं पर आधारित है। हमारी संस्कृति ही उनके व्यक्तित्व का निर्माण करती है। यह व्यक्तित्व उनके बालावस्था एवं युवावस्था में सीखी गई व्यवहार और आदतों पर निर्भर करती। आज जब कोई सामान्य चर्चा में आदिवासी युवा की बात करता है तो उनके वचनों में बहुत सकारात्मक ‘विशेषण’ का उपयोग नहीं होता है। कितनी सरलता से उपहास उड़ाया जाता है- जमीन बेच कर महँगे वाहन, कैमरे, सोशल मीडिया में रील का शौकीन, मित्रता, नशा इत्यादि विशेषण आपके पर्यायवाची बन गये हैं। ‘माय माटी’ में लेख प्रकाशित होने के बाद अनेक लोगों से चर्चा होतीं हैं। आदिवासी समाज को लेकर और विशेष रूप से युवाओं के संदर्भ में जो कठोर टिप्पिणियाँ आतीं हैं उसे ना तो मैं नकार पाता हूँ ना ही साथी शिक्षाविद।

जब टांगी को धार करते हैं ना तो उसे खुरदरे सतह पर घिसते है। तभी चमक आती है। यह घर्षण हमारे आदिवासी युवाओं के जीवन की नियति है। किंतु इन चुनौतियों को आप सकारात्मक रूप में लें। जब संघर्ष नहीं होगा तो आपकी सफलता की कोई गाथा ही नहीं होगी। इन सब परिस्थितियों में आदिवासी युवा को क्या करना चाहिए। यहाँ इस विश्लेषण में मैं कोई जटिल विज्ञान के बारे में नहीं बता रहा। निम्नलिखित विचार सर्वविदित हैं। किंतु मेरा उद्देश्य मात्र आपको प्रेरित करना है, उस बंधन को तोड़ना है जो आपके मनःस्थिति को जकड़े हुए है।

एक छोटी से कहानी साझा करना चाहूँगा। एक वयस्क हाथी को पतली सी रस्सी से बाँध के रखा जाता था। वह ना तो उसे तोड़ने का प्रयास करता था ना ही उस से स्वतंत्र होने का। उसका कारण था कि छोटे आयु से ही उसे उस पतली रस्सी से बांध के रखा जाता था। कम आयु में वह उस रस्सी को कभी तोड़ नहीं पाया और वयस्क होने के बाद भी इस बंधन ने उसके मनःस्थिति को जकड़े रखा। अब वह अभ्यस्त हो चुका था कि वह इसे कभी भी नहीं तोड़ सकता। हमारे आदिवासी युवाओं को भी इसी मनःस्थिति से बाहर निकालने की आवश्यकता है।

‘राष्ट्रीय शैक्षिक योजना और प्रशासन संस्थान’ की शोधार्थी, सुश्री निलांजना ने मुझसे कहा था कि आपके समाज में रोल मॉडल की कमी है, हैंड होल्डिंग की कमी है। और इसलिये आदिवासी बच्चों में शैक्षिक उदासीनता प्रबल है। मुझे लगता है कि सतत् प्रयास से इसका निदान किया जा सकता है। उच्च शिक्षा हासिल कर रहे युवाओं को आज भी अपने स्कूल अवश्य जाना चाहिए। आपके स्कूली जीवन में जिन शिक्षकों ने आपके जीवन को सबसे अधिक प्रभावित किया है उनसे आज भी मिलिए। उन्होंने आपका आधार रखा है। उनका मार्गदर्शन लीजिए। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वो आपको देख के आज भी उतने ही खुश होंगे। यदि आपके संबंधित विभाग में ना सही, आपके कॉलेज में ज़रूर एक शिक्षक होंगे जो आपका साथ देंगे। शिक्षक की कोई सीमा नहीं होती है। मेरे पूरे जीवन काल में श्रीमती माला बोस (स्कूल), प्रोफेसर प्रदीप कुमार सिंह, प्रोफेसर कर्मा उराव, श्री सुरेन्द्र झा, इत्यादि जैसे शिक्षक सह अभिभावकों की भूमिका को मैं कभी नहीं भुला सकता।

आप अपनी परिस्थिति की तुलना दूसरे बच्चों के साथ नहीं कर सकते हैं। आपके पास दूसरे प्रकार की चुनौतियाँ हैं। घर का शैक्षिक माहौल अच्छा नहीं है। पिता-माता सीमित सहयोग कर पाते हैं। अनेकों के घर में नशापान एक बड़ी समस्या है। कुछ समय के लिये इन पर रोना ठीक है। किंतु इस रोने गाने से क्या आपके परिस्थिति में कोई परिवर्तन आएगा? ऐसे में यह आवश्यक है कि आपको स्वयं कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। स्वयं कर्णधार बनना होगा। इसको आप इस रूप में भी देख सकते हैं कि आपको स्वावलंबी बनने का, स्वयं निर्णय लेने का और समय से पहले परिपक्व होने का अवसर मिल रहा है। यह कहना आसान है किंतु इसका अनुपालन अत्यंत कठिन है।फिर भी यह संभव है। आदिवासी समाज ऐसा है जहाँ लिंग भेद नहीं है। बेटियों को इसका सदुपयोग करना चाहिए।

सर्वप्रथम आपको एक नियमित दिनचर्या या रूटीन निर्धारित करना ही होगा। प्रातः उठने की आदत डालनी होगी। सुबह के कुछ घंटे, अध्ययन में बिताना ही होगा। प्रतिदिन कक्षा से पहले सुबह पढ़ कर आयें। यकीन कीजिए, यह आपके जीवन को अत्यधिक प्रभावित करेगी। सरना जाया करें। पुरखों को याद करना सीखें। निश्चित ही सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव होगा। मात्र घंटे दो घंटे के लिए महाविद्यालय आने से आप शिक्षित भले हो जायें, किंतु ज्ञान अर्जित नहीं कर पायेंगे। पुस्तकालय जाना सीखें। पुस्तक से अच्छा कोई मित्र नहीं। अपने विषय के मूल किताबों को अवश्य ख़रीदें। मात्र पुस्तकालय पर निर्भर नहीं रहे। नियमित और बार बार इन मूल पुस्तकों के अध्ययन से आपके अनेक संशय दूर होंगे और विषय के प्रति गहरी रुचि भी जगेगी। यह अनुभव आधारित तथ्य है।

माता पिता के संघर्ष को जानिए। यह सच है कि जब तक आप स्वयं माता पिता नहीं बनेंगे तब तक यह सभी बातें बेकार लगती हैं। किसानी बुरी नहीं, किंतु अमूमन आपके अभिभावक नहीं चाहते हैं कि आप किसानी करें। आप कौन सा करियर चुनते हैं, यह पूर्ण रूप से आप पर निर्भर करता है। मुझे या किसी अन्य को इसमें टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं है।शिक्षा और रोज़गार, एक ही सिक्के के दो पहलू प्रतीत होते हैं। किंतु अब परिस्थितियाँ तेज़ी से बदलीं हैं। शिक्षा का एक अलग महत्व रखती है और वह अनमोल है। लेकिन अब रोज़गार को मात्र शिक्षा के जोड़ कर देखना सही नहीं होगा।

ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले विद्यार्थियों को बराबर प्रोत्साहित करता हूँ कि आपके पास ज़मीन है और उस से जुड़ीं सरकार के पास अनेक योजनाएँ हैं। सरकार सहयोग कर रही है। आप भी हाथ बढ़ायें। उनको जानिए और थोड़ा संघर्ष करना सीखिए। ज़मीन संबंधित दस्तावेज़ को समझिए। अपने संवैधानिक अधिकारों को भी जानिए। अपने प्रखंड कार्यालय में जाना सीखिए। यदि अकेले डर या संकोच होता है तो मित्रों के साथ समूह में जाएँ। अपने अधिकार के लिए आपको बोलने सीखना होगा। ऐसे अनेक अधिकारी हैं जो आपको खुल के सहयोग करेंगे।

दूसरा महत्वपूर्ण सामाजिक दायित्व आपको अपने गाँव टोलों में निभाना होगा। सामाजिक कार्यों में योगदान देना सीखें। गाँव टोला के बच्चों को अच्छे सानिध्य में रखें। आपका यह दायित्व बनता है कि ख़ाली समय में गाँव टोला के बच्चों को पढ़ाई से लेकर अन्य सकारात्मक कार्यों में लगाना सीखें। और आपकी इस छोटी सी सहभागिता, आपको भरपूर आत्मविश्वास के साथ स्वयं के व्यक्तित्व को भी एक नई ऊँचाई देगी। गाँव बदलेगा तो देश बदलेगा।

लेखक परिचय:
डॉ. अभय सागर मिंज एक अंतर्राष्ट्रीय-स्तर के जाने-माने शिक्षाविद हैं, जो संप्रति डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय (रांची) के मानवशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक के तौर पर कार्यरत हैं। आदिवासी समाज के युवाओं को आगे बढ़ने की नई राह दिखाता उनका यह बहुचर्चित आलेख प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है।

Share this Story...
Advertisement

Trending

You May Also Like

Culture

9 अगस्त 1982 को प्रथम बार संयुक्त राष्ट्र संघ के एकनॉमिक एंड सोशल काउन्सिल (ईकोसोक) ने आदिवासियों से संबंधित एक कार्यकारी समूह का गठन...

Culture

बाल्यावस्था में जब लम्बी छुट्टियों में गाँव जाया करता था तो रात्रि भोजन के पश्चात व्याकुलता के साथ अपने आजी से कहानी सुनने के...

World

रांची। प्रसिद्ध लेखक, शिक्षाविद एवं डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय (रांची) के मानवशास्त्र के विभागाध्यक्ष डॉ. अभय सागर मिंज एवं उनके छात्र विमल कच्छप...

Culture

रांची। भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) रांची द्वारा टाटा स्टील फाउंडेशन के सहयोग से, आगामी 26-27 अगस्त को दो दिवसीय आदिवासी सम्मेलन एवं आदिवासी फिल्म...

error: Content is protected !!