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विलुप्त होती आजा-आजी की कहानियाँ और धूमिल होती आदिवासी मौलिकता

बाल्यावस्था में जब लम्बी छुट्टियों में गाँव जाया करता था तो रात्रि भोजन के पश्चात व्याकुलता के साथ अपने आजी से कहानी सुनने के लिए प्रतीक्षा करता था। लकड़ी के चूल्हे के बग़ल में ज़मीन पर ही चटाई होती थी। चूल्हे की धीमी ताप के साथ दादी की कहानियों की तपिश आज भी एक अलग ममत्व का बोध कराती है। यह अनुभूति मेरे जीवन और व्यक्तित्व में स्थायी रूप से विद्यमान हो गई है। आजा आजी की कहानियों को मात्र मनोरंजन की दृष्टिकोण से देखना संकीर्ण होगा। इन कहानियों में आदिवासियों का प्रकृति से सानिध्य, सहजीविता, सामाजिक सहिष्णुता, सामूहिकता इत्यादि स्पष्ट दिखलाई पड़ती हैं।

क्या था आजा आजी के कहानियों में? कहानियों में मौलिकता थी, कहानी के पात्र पेड़ पशु से बात करते थे। प्रत्येक कहानी में एक गहरी संवेदना एवं संदेश होता था। यह दर्शाया जाता था कि पृथ्वी के सभी जीव जंतु, अजीवित प्राकृतिक संसाधन तक, सभी एक सामान हैं। जीवित या मृत प्रत्येक वस्तुओं में भी भावना थी, कुछ संदेश था।

आज जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित प्रकृति का दोहन, 21वीं सदी में भी विकसित राष्ट्रों के बीच वीभत्स युद्ध, धार्मिक ध्रुवीकरण, सामाजिक टकराव इत्यादि जैसी चुनौतियाँ, शिक्षित एवं विकसित कही जाने वाली समाज के लिए हास्यपद के साथ विकसित होने की विरोधाभास को प्रदर्शित करती है। आपसी वैमनस्यता आज अपनी पराकाष्ठा पर है। यह शांत एवं धीमी गति से हमारे बच्चों के बीच स्थापित हो गई है। स्कूली बच्चे तक इस चपेट में आ गये हैं। अनजाने में ही सही, टीवी से उपजे उन्माद हमारे बच्चों के ज़हन में अपनी जड़ें फैला चुकी है। मैं नहीं कहता कि आप अपनी अस्तित्व और संस्कृति पर गर्व ना करें, किंतु अन्य संस्कृतियों का भी सम्मान करना हमें आना चाहिए। बच्चे किसी भी समाज के हों, उनकी प्राथमिक समाजीकरण उनके घर-परिवार में ही होती है। उनका स्थायी व्यक्तित्व, उनके जीवन के प्रथम वर्षों में ही आकार लेती है। ऐसे समय में हमारी नैतिकता की आधार रखने वाले आजा आजी, हमारे जीवन से विलुप्त हो रहें हैं। कहते हैं -“एक नाती-पोता का प्रथम मित्र उसके आजा आजी या नाना नानी होते हैं, और आजा आजी या नाना नानी के लिए उनके आख़िरी मित्र उनका नाती पोता ही होता है”।

आदिवासी समाज हो या कोई अन्य समाज, हमारे नैतिकता के प्रथम शिक्षक यही होते हैं। आजी से कहानी सुनने की ललक इस बात से भी प्रभावित नहीं होतीं थीं कि वो कहानी को पुनः दोहराने वालीं हैं। उनके ध्वनि की लय, कहानी के बीच बीच में गीत, लोकोक्ति, मुहावरे गहरे संदेश संप्रेषित करते थे। उनका यह अमूल्य अलिखित ज्ञान हमारे व्यवहार में धीमे से स्थापित होता है।

आजा आजी की कहानियों में आकर्षक विज्ञान है। उनके सानिध्य में आप समाज को एक अलग दृष्टिकोण से देखते हो। अपने नाती पोते से व्यवहार में ठेठ नैतिक शिक्षा देखने को मिलती है। आप आज भी पायेंगे कि बड़े बुजुर्ग जब किसी प्रसंग का विवरण देते हैं तो मन मंत्रमुग्ध हो जाता है। आज भी जब गाँव में होता हूँ तो वहाँ के बड़ों के मातृभाषा में ध्वनि के रोचक उतार चढ़ाव, लय, मन को बांध लेते हैं। “अखड़ा” में जब अनेक विषयों पर चर्चा होती है तो मेघनाथ जी हों या बीजू टप्पो जी, उनके बात-कहानी बताने के तरीक़े अलग अनुभूति प्रदान करते हैं। कथा या वृत्तांत में वॉइस मॉड्यूलेशन, चेहरे के भाव, रोचक संवाद, आपको भावनात्मक रूप से गहराई से प्रभावित करतीं हैं.

और इन सब के बीच यहीं यह वृहद् चोट होती है. भौतिकवाद की अंधी दौड़ में हमारे आजा आजी को “मोबाइल फ़ोन” ने विस्थापित कर दिया है। याद रखियेगा, मशीन में भावना नहीं होती। जो भावना का संप्रेषण आजा आजी कर सकते हैं या करते थे, वह मशीन कभी नहीं कर सकती। आज जब हम नैतिकता और मौलिकता का निर्माण मशीन के द्वारा अपने बच्चों का करा रहे हैं, तो निश्चित ही उनमें मानवीय भावना धूमिल होंगी ही।

आजा आजी के कहानियों में प्रत्यक्ष रूप से “आदिवासियत” का बोध होता है। ये मात्र कहानी या वृतांत नहीं हैं। ये उनके सीधे प्रकृति और जीवन से अर्जित अनुभव का सारांश होता है। मौखिक परंपरा वाले समाज में आजा आजी का यह वृतांत अनेक पीढ़ियों के ज्ञान का समावेश होता है। इस विज्ञान को हमें हल्के में नहीं लेना चाहिए। उनका स्थान किताबें कभी नहीं लें सकतीं हैं। स्कूलों में नैतिक शिक्षा, विषय के रूप में निश्चित ही स्थापित है, किंतु आज के बच्चे उनमें भी ज्ञान से अधिक “अंकों” को महत्व देते हैं।

आजा आजी के सानिध्य में सुनी गई ये अनुभवी वृतांत आदिवासी समाज के “आदिवासियत” के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। हाल ही में, जर्मनी के प्रोफेसर ने “आदिवासी जीवन शैली, आदिवासी वृतांत और देशज ज्ञान के महत्व” पर मुझे व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया था। स्विट्ज़रलैंड के ज़्यूरिख़ विश्वविद्यालय और जर्मनी के तुबिंगेन विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में जब मैंने “आधुनिक समाज की वर्तमान चुनौतियों के समाधान में आदिवासी जीवन शैली की भूमिका” पर वक्तव्य दिया था, तभी से यह शीर्षक मेरे ज़हन में था। इन प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में “आदिवासियत के द्वारा आधुनिक समाज की समस्याओं का समाधान”, उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा बन रहे हैं। इसलिए इस विज्ञान को हमें पुनर्जीवित करना होगा। किसी भी क़ीमत पर, अपने जड़ों से फिर से जुड़ना होगा।

प्रत्येक समाज की पहचान उनके व्यवहार, उनके सामाजिक व्यक्तित्व से होता है।आदिवासी समुदाय, ईमानदार, परिश्रमी, सीधे सादे, कर्मठ जैसे गुणों के पर्यायवाची माने जाते रहे हैं। पर अब यह पर्यायवाची तेज़ी से परिवर्तित हो रही है। नयी पीढ़ी में अनेक प्रकार के सामाजिक एवं व्यवहारिक दोष देखने को मिल रहे हैं। आदिवासी समाज की पुरानी पीढ़ी अचंभित और दुखी है। समाज कहाँ जा रहा है? आज जब भी आदिवासी युवाओं को देखता हूँ तो चिंतित होता हूँ। अनेक क्षेत्रों में वो सर्वोच्च प्रदर्शन कर रहे हैं, नये आयामों को अर्जित कर रहे हैं। किंतु खेद है कि आदिवासी मौलिकता धूमिल होती जा रही है। सोशल मीडिया हो या प्रत्यक्ष रूप में, युवा दोषारोपण, उन्माद और निंदा में लगा हुआ है। ध्रुवीकरण के शिकार हो रहे हैं। मैं धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण के ख़िलाफ़ हूँ। मेरा मानना है कि निंदा, आपको कभी बेहतर नहीं बना सकती। वह मात्र आपकी ऊर्जा नष्ट करेगी। बेहतर बनने के लिए परिश्रम, समझ और मूल आदिवासियत होना आवश्यक हैं।

हमारे आदिवासी समाज की वर्तमान स्थिति में निन्दा करना, अन्य समाज पर दोषारोपण करना एक चलन सा हो गया है। हम घड़े बनाने वाले को दोष देने लग जाते हैं। कैसा घड़ा बनाया है? कब से जल ढाल रहे, ये भरता क्यों नहीं? अरे भाई, देखो ना घड़ा बनाने वाले ने ही सही ढंग से नहीं बनाया है। इसका “मुँह” तो उसने नीचे की ओर बनाया है। इस प्रसंग में समाधान सरल है। हमें इस “औंधे घड़े” को मात्र सीधा करना है।

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