सोनाहातू (रांची)। मकर संक्रांति व टुसू पर्व झारखंड के सबसे लोकप्रिय त्योहारों में से एक है। यह पर्व नारी शक्ति के सम्मान व स्वाभिमान के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व ठंड के मौसम में धान की फसल काटने व दौनी करने के बाद आता है। यह पंचपरगना क्षेत्र में करीब एक महीने तक मनाया जाता है। किसानों के घर में धान की फसलें आ जाती हैं। टुसू का शाब्दिक अर्थ है कुंवारी कन्या।
वैसे तो झारखंड के सभी पर्व, त्योहार प्रकृति से ही जुड़े हुए हैं, लेकिन टुसू पर्व का महत्व कुछ और ही है। समृद्धि की भावना से ओतप्रोत का यह पर्व झारखंड के पंचपरगना, पश्चिम बंगाल, पुरुलिया, मिदनापुर, बांकुड़ा, ओडिशा, क्योंझर, मयूरभंज एवं बारीपदा आदि जगहों में मनाया जाता है। टुसू का पर्व अगहन संक्रांति से लेकर मकर संक्रांति तक कुंवारी कन्याओं के द्वारा टुसू की स्थापना कर मनाया जाता है। प्रत्येक घर की कुंवारी कन्याएं प्रतिदिन संध्या को टुसू का पूजन करतीं हैं।
टुसू पर्व के पीछे क्या है कहानी
टुसू पर्व मनाने के पीछे कई कहानियां प्रचलित हैं। इसमें से प्रचलित एक कहानी के अनुसार, टुसू एक गरीब किसान की अत्यंत सुंदर कन्या थी। धीरे-धीरे संपूर्ण राज्य में उसकी सुंदरता का बखान होने लगा। एक क्रूर राजा के दरबार में भी यह खबर फैल गई। राजा का कन्या के प्रति लोभ हो गया और कन्या को प्राप्त करने के लिए उसने षड्यंत्र रचना प्रारंभ कर दिया। संयोग से उस साल राज्य में भीषण अकाल पड़ गया। किसान लगान देने की स्थिति में नहीं थे। इसी स्थिति का फायदा उठाने के लिए राजा ने कृषि का कर दोगुना कर दिया।
गरीब किसानों से जबरन वसूली का राज्यादेश दे दिया गया। पूरे राज्य में हाहाकार मच गया। इस पर टुसू ने किसान समुदाय से एक संगठन खड़ा कर राजा के आदेश का विरोध करने का आह्वान किया। राजा के सैनिकों और किसानों के बीच भीषण युद्ध शुरू हो गया। युद्ध में हजारों सैनिक मारे गए। टुसू भी सैनिकों की गिरफ्त में आने वाली थी, लेकिन उसने राजा के आगे घुटने टेकने के बजाय जलसमाधि लेकर शहीद हो जाने का फैसला लिया और उफनती स्वर्णरेखा नदी के सतीघाट स्थल पर कूद गई।
उनकी इस कुर्बानी की याद में ही टुसू पर्व मनाया जाता है। यहां टुसू की प्रतिमा बनाकर कुंवारी कन्याएं नदी में विसर्जित कर श्रद्धांजलि भी अर्पित करतीं हैं। टुसू कुंवारी कन्या थी, इसलिए इस पर्व में कुंवारी लड़कियों की ही अधिक भूमिका रहती है। टुसूमनी के स्वाभिमान, साहस व बहादुरी की गाथा के कारण टुसू पर्व नारी शक्ति के सम्मान का प्रतीक है। यह टुसूमनी नामक युवती के स्वाभिमान, साहस व बहादुरी की गाथा से जुड़ा है।
एक अन्य लोक कथा
एक अन्य लोककथा के मुताबिक तीन बहनें थीं। सरला, भादू और टुसूमनी। इनमें टुसूमनी बहुत ही रूपवती और गुणवती थी। गरीब किसान की बेटी थी। उस समय भारत में मुगलों का शासन था। खूबसूरत होने के कारण मुगल सरदार टुसूमनी को जबरन अपनाना चाहता था। टुसूमनी ने अपनी लाज बचाने के लिए पौष माह में मकर संक्रांति के दिन स्वर्णरेखा नदी में कूदकर जान दे दी। जिस स्थल पर यह घटना घटी, वह स्थान सतीघाट के नाम से प्रसिद्ध है। टुसूमनी की पुण्यतिथि पर अगहन संक्रांति को गांव की कुंवारी लड़कियां टुसू की प्रतिमा स्थापित करतीं हैं और टुसूमनी के स्वाभिमान व बहादुरी के गीत गातीं हैं।
सतीघाट में दिखते हैं टुसूमनी के पदचिन्ह
बुजुर्गों का कहना है कि सतीघाट की स्वर्णरेखा नदी में आज भी एकांत मन में डुबकी लगाने से टुसूमनी दर्शन देती है। वहां टुसूमनी के पदचिन्ह आज भी दिखाई देते हैं। इस सतीघाट स्थल से होकर तीन नदियां गुजरती हैं। यह कांची, राढ़ू और स्वर्णरेखा नदी का संगम स्थल है। टुसूमनी के पदचिन्ह आज भी यहां दिखता है।
एक किलोमीटर में सजतीं हैं दुकानें
सतीघाट पर टुसू मेला की तैयारी शुरू हो चुकी है। बारेंदा पंचायत के पांडुडीह टोले से सतीघाट के करीब एक किलोमीटर लंबे रास्ते पर दोनों ओर दुकानदारों ने जमीन रिजर्व कर रखा है। यहां मेले में सैकड़ों दुकानें सजती हैं। इसे लेकर मेला कमिटी की बैठक हो चुकी है।