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गाँव छोड़ब नहीं, लड़ाई छोड़ब नहीं… पढ़ाई छोड़ब नहीं

‘राष्ट्रीय शैक्षिक योजना और प्रशासन संस्थान’ की पीएचडी शोधार्थी और मित्र, सुश्री निलांजना मोईत्रा वर्तमान में ‘आदिवासी बच्चों में शिक्षा के प्रति उदासीनता’, पर अपना शोध कर रहीं हैं। इस संदर्भ में अनेकों बार हमारी गहन चर्चाएँ हुईं। उन्होंने मेरी इस अचेतन और वर्षों से सुप्त विषय को पुनः जागृत कर दिया। मेरी पीड़ा स्वतः झलकने लगी। अपने चौदह वर्षों के शिक्षण कैरियर में प्रत्येक वर्ष जब नए सत्र के विद्यार्थियों से मिलता हूँ, तो प्रारम्भिक कक्षा में ही ‘शिक्षा, समाजिक दायित्व और कैरियर को लेकर विशेष चर्चा हमेशा करता हूँ। यक़ीन कीजिए, चौदह साल पहले की पहली कक्षा और चौदहवाँ साल की पहली कक्षा में कोई विशेष परिवर्तन देखने को नहीं मिला है। अधिकांश आदिवासी छात्र, जीवन के उद्देश्य और कैरियर को लेकर लगभग शून्य होते हैं। स्नातक के पश्चात भी, अनेक स्नातकोत्तर के छात्र भी बहुत ठोस जवाब नहीं दे पाते हैं। कुछ जवाब आता भी है तो उनमें दृढ़ता की कमी होती है। हो सकता है कि मेरा यह अवलोकन एक तरफ़ा हो और मेरे आध्यात्मिक मित्र इस विचार से भिन्न मत रखते हों, किंतु इस प्रकार के अवलोकन आपको प्रायः सरकारी महाविद्यालयों में देखने को मिल ही जाते हैं। सुश्री मोइत्रा से मैंने साझा किया कि मुझे भी इस विषय पर गहन रुचि है और निकट भविष्य में किसी पीएचडी शोधार्थी को इस विषय पर अध्ययन के लिए प्रेरित कर के निर्देशित कर सकूँ।सुश्री मोइत्रा के साथ फिर हमने आदिवासी और ग़ैर आदिवासी छात्रों से चर्चाएँ एवं साक्षात्कार करना शुरू किया। कुछ इस चर्चा से और अधिकांश अपने अनुभव के आधार पर वर्षों से सुप्त अपनी इस पीड़ा को लेख ले माध्यम से आप सभों के समक्ष रख रहा हूँ।

आदिवासी छात्रों के मध्य जो निम्न स्तर की आध्यात्मिक आकांक्षाएँ देखने को मिलती हैं उसका प्रमुख कारण आदिवासी समाज और ग़ैर आदिवासी समाज के बीच व्याप्त पूर्वाग्रह सोच है। ‘आदिवासी तो होते ही ऐसे हैं’। आदिवासी समाज के प्रबुद्ध जन के मुख से भी इस प्रकार के विचार अक्सर सुनने को मिलता है। इस बात को पहले समझना होगा कि आदिवासी छात्र और ग़ैर आदिवासी छात्रों को एक ही मापदंड में तौलना शायद सही नहीं होगा। पारिवारिक वातावरण, घर एवं आसपास के शैक्षणिक माहौल, माता-पिता की शिक्षा, जीविकोपार्जन स्तर, कौन से पीढ़ी शिक्षा या नौकरी में है, दोनो के संदर्भ में भिन्न हैं। अनेक आदिवासी बुद्धिजीवी प्रयास कर के हताश हो गए हैं। अब उन्हें लगता है कि आदिवासियों को समझाना या उनको शिक्षा से बदलाव को लेकर प्रेरित करना बड़ा कठिन कार्य है।

छात्रों के मध्य यह बात बहुत प्रबलता से उभर के सामने आयीं कि आदिवासी समाज में रोल मॉडल या प्रेरणास्रोत नगण्य हैं। और जो हैं वो अब ‘साहब’ हो गए हैं। आदिवासी छात्र इन ‘साहबों’ को अब आदिवासी ही नहीं मानते क्योंकि इनकी समाजिक सहभागिता साहब बनने के बाद शून्य हो गयी है। दूसरा कारक जो आदिवासी छात्रों के बीच से उभर के सामने आया वह था अपने ही गुरुजनों में आदिवासी छात्रों के प्रति संवेदनशीलता की कमी। छात्रों ने स्वयं इस बात का उल्लेख हमारी चर्चाओं के दौरान किया और साझा किए कि उन्हें अनेक बार आदिवासी होने के कारण दरकिनार कर दिया जाता है।

वहीं कुछ छात्रों को लगता है कि उनमें भी प्रतिभा की कमी है। अनेक ने तो यह भी कहा कि उनमें बौद्धिक क्षमता की कमी है, जो कि सरासर ग़लत तथ्य है। अनेकों को कोई कार्य उनके क्षमता से बड़ी लगती है और एक आम धारणा है कि एक आदिवासी छात्र से यह नहीं होगा। स्थापित सोच कि ‘दूसरे लोग उनसे बेहतर हैं’ अनेक बार उन्हें प्रयास करने से भी रोकते हैं।

आदिवासी छात्रों ने यह भी बड़ी सरलता से साझा किया कि माता-पिता या उनका समाजिक वातावरण भी शिक्षा और कैरियर को लेकर बहुत गंभीर नहीं है। पहला तो यह कि अनेक छात्रों की यह पहली पीढ़ी है जो उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही है और दूसरा, माता-पिता यदि गंभीर भी हैं तो आगे मार्गदर्शन कर पाने में सक्षम नहीं हैं। पहली पीढ़ी के नौकरी पेशा आदिवासी दंपतियों में भी यह देखने को मिला है। अपने बच्चों के लिए शिक्षा के लिए मूलभूत आवश्यकता पूरा करना ही वो अपना अंतिम दायित्व समझते हैं या मात्र उतना ही कर पाने में सक्षम हैं। लेकिन यदि आप सकारात्मक बदलाव चाहते हैं तो माता पिता को भी जागरूक होना होगा, सचेत होना होगा और अपने बच्चों को उसी ढंग से तैयार करना होगा।

अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ कि आदिवासी बच्चों में भी प्रतिभा की कमी नहीं है। जहाँ हम प्रयास कर के थक चुके हैं, उन्हें समझा के हताश हो चुके हैं, अब एक नया प्रयास करना होगा। ‘आदिवासी होते ही ऐसे हैं’, बोलना छोड़ के अब हमें उनका हाथ थामना होगा- ‘होल्डिंग हैंड’। उन्हें बलपूर्वक शिक्षा के प्रति उन्मुख करना होगा। कैरियर को लेकर सचेत करना होगा। हमारे आदिवासी समाज में एक कहावत है-‘दातुन खने नाहीं, तो तोंबा खने’। इसका अर्थ हुआ कि जब पौधा नन्हा हो तभी उसे सही दिशा देना चाहिए जिससे कि वह आने वाले समय में सीधा पेड़ बने सकेगा। इसलिए आदिवासी बच्चों को कोसने से बेहतर होगा कि बुद्धिजीवियों को उनका हाथ थाम कर उन्हें आगे लाना होगा।

व्यक्तिगत अनुभव साझा कर रहा हूँ। आठवीं कक्षा में संत ज़ेवीअर स्कूल, राँची की मेरी शिक्षिका श्रीमती माला बोस ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे विद्यालय की पुस्तकालय ले गयीं। अपने नाम से मेरे लिए हिंदी एवं अंग्रेज़ी की पुस्तक निर्गत कराया। उन्होंने मुझे पढ़ने और लिखने के लिए बाध्य किया था। शुरुआत अनमने ढंग से हुई किंतु जल्द ही वह रुचि में बदल गयी। वह दिन और आज का दिन है- मेरा पुस्तकों से नाता कभी नहीं टूटा। और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह घटना मेरे जीवन की सबसे बड़ी टर्निंग पोईंट थी। ऐसे अनेक अनुभवों में से दूसरा हाल में देखने को मिला। ओसलो मेट्रोपॉलिटन विश्वविद्यालय, नोर्वे के मित्र डा राहुल रंजन ने आदिवासी छात्राओं के लिए स्कालर्शिप के माध्यम से सहयोग किया। उस आदिवासी बेटी निशु मुंडा ने स्नातकोत्तर में स्वर्ण पदक हासिल किया जो सुदूर बुंडु के काँची गाँव की रहने वाली हैं। राँची में प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में डा माया कुमार और श्रीमती अर्चना सिन्हा का बड़ा नाम है। डा माया के स्कूल में आदिवासी बच्चों के प्रति शुरू से ही जो संवेदनशीलता है वह बहुत अदभुत है। उन्होंने प्रमाणित किया है कि बच्चे किसी भी पृष्टभूमि के हों, यदि उन्हें बराबर के अवसर और तुलनात्मक संवेदनशीलता से सींचा जाए तो आदिवासी बच्चों में भी असीम क्षमताएँ हैं। यह कुछ उदाहरण हैं जो मेरे ख़्याल से आदिवासी छात्रों के लिए प्रेरणा बनेंगी।

लाल घेरे में निशु मुंडा की तस्वीर

सरकारी महाविद्यालयों के छात्रों में हमेशा से एक हीन भावना देखने को मिलती है। यदि अंग्रेज़ी भाषी छात्र समूह में होते हैं तो आदिवासी बच्चे स्वतः दुबक जाते हैं। मैं हमेशा इस बात पर ज़ोर देता हूँ कि बाल्यावस्था में आपकी परिस्थिति विपरीत थी और आप अंग्रेज़ी भाषा नहीं सीख सके, कोई बात नहीं। किंतु अब यह आपके हाथ में हैं कि मेहनत और उपलब्ध तकनीकी संसाधन से आप सरलता से बहुभाषी हो सकते हैं। दूसरा नियम जो मैं हमेशा आपने छात्रों को कहता हूँ वह यह कि विश्वविद्यालय परिसर में आपके हाथ में हमेशा एक किताब होनी चाहिए। आदिवासी छात्रों में आत्म विश्वास की घोर कमी देखने को मिलती है। पुस्तक का यह आत्म साथ ही आपको आत्मविश्वासी बनाएगा। यक़ीन कीजिए, यह आपके समूचे व्यक्तित्व में ज़बरदस्त परिवर्तन लाएगा। ज्ञान आपको तर्क प्रदान करेगा। जिन छात्रों ने मायूसी से कहा कि परिस्थिति और घर का माहौल नकारात्मक है, दिशा देने वाला कोई नहीं और आगे क्या कर पाएँगे यह पता नहीं। यही पढ़ने की आदत और पुस्तक का साथ इसका सरल निदान है। अब आप पर है कि आप इस आदत को कैसे बनाते हैं और बनाए रखते हैं।

हैंड होल्डिंग या हाथ थामने का अदम्य प्रयास सरकार के ओर से भी निश्चित होना चाहिए। हमने छात्रों के बीच स्पष्ट पाया कि आदिवासी छात्र इंटर और स्नातक के पढ़ाई के दौरान ही सचेत हुए थे कि जीवन में कुछ करना है। यहाँ एक बड़ा फ़ासला देखने को मिलता है। इसका अर्थ हुआ कि बच्चे मैट्रिक तक इस ओर उन्मुख ही नहीं थे। इस ओर अविलंब अवश्य कोई कदम उठाना चाहिए। दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु यह कि स्थानीय प्रतिभा के अनुसार रोज़गार सृजन हो। भाषा से और खेल से यदि सरकार रोज़गार को सीधा जोड़ेगी तो सकारात्मक परिवर्तन आदिवासी समाज में देखने को अवश्य मिलेंगे।

‘गाँव छोड़ब नहीं, जंगल छोड़ब नहीं’
‘माय माटी छोड़ब नहीं, लड़ाई छोड़ब नहीं’

मेघनाथ दा द्वारा रचित यह गीत प्रायः आदिवासी आंदोलनों में एक मनोवैज्ञानिक सबलता और नयी ऊर्ज़ा का संचार करता रहा है। यह गीत हमारे इतिहास, शोषण, व्यथा, पीड़ा और संघर्ष की कहनी बताता है। यह संघर्ष शायद अंतहीन है। इस लड़ाई में, जिसमें हम हमेशा से दमन के शिकार हुए हैं, चाहे वह सरकारी या ग़ैर सरकारी बर्बरता हो, यह गीत उन्हें बखूबी बयान करता है। आदिवासी अस्तित्व, भाषा एवं संस्कृति और अस्मिता पर सीधा प्रहार और उसके दंश को इस गीत में महसूस किया जा सकता है।

‘गाँव छोड़ब नहीं, जंगल छोड़ब नहीं’
‘माय माटी छोड़ब नहीं, लड़ाई छोड़ब नहीं’
‘पढ़ाई छोड़ब नहीं’

इस ऊर्जावान गीत में अब ‘पढ़ाई छोड़ब नहीं’ को नए दृष्टिकोण के साथ आत्म-साथ करना आदिवासी समाज के लिए अति आवश्यक हो गया है। शिक्षा को आत्म-साथ करना आदिवासी समाज के लिए नयी बात नहीं है, किंतु इस आत्म-साथ में अब गंभीरता लानी होगी, तभी सकारात्मक परिवर्तन होंगे। जब कभी हम अपनी अधिकारो के लिए माँग करते हैं और सड़क की आंदोलन करते हैं तो एक प्रश्न स्वयं से हमेशा कीजिएगा -क्या हम बस लाठी खाने के लिए पैदा हुए हैं? याद रखिएगा शिक्षा ही आपके चेतना और संघर्ष को एक कारगर अस्त्र प्रदान कर सकती है।

लेखक परिचय:
डॉ अभय सागर मिंज एक अंतर्राष्ट्रीय-स्तर के जाने-माने शिक्षाविद हैं, जो संप्रति डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय (रांची) के मानवशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक के तौर पर कार्यरत हैं। आदिवासी समाज में शिक्षा की जागरूकता को लेकर उनका यह बहुचर्चित आलेख 21 जनवरी 2022 को प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है।

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