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धुमकुड़िया: कल, आज और कल

धुमकुड़िया या युवा गृह, अविवाहित आदिवासी युवाओं का एक समाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक, पारंपरिक, राजनैतिक एवं धार्मिक प्रशिक्षण देने वाला पारंपरिक संगठन है जो बीते सदी के मध्य तक प्रचलित थी। विश्व के अनेक आदिवासियों के बीच पायी जाने वाली यह अद्भुत संगठन ऊर्जावान युवा शक्ति को एक सकारात्मक दिशा देती थी। प्रसिद्ध मानवशास्त्री हेमिंडोरफ, वेरीर एल्विन, सरत चंद्र रॉय, ग्रिग्सन, होनिगमन इत्यादि ने इन युवा गृह का गहन अध्ययन किया है।

ट्रोब्रियएंड द्वीपसमूह में इसे ‘बुकुमटूला’, फ़िलिपींस के ‘इगोरोत’ आदिवासी इसे ‘डपय’, गौतेमेला (अमेरिका) में इसे ‘कलपुले’, स्कॉटलैंड में ‘इमीयम’, इंडोनेसिया में ‘लोहो’, ऑस्ट्रेलिया के टोर्रेस्स स्ट्रेट में ‘क्वोड’, मलाकु द्वीपसमूह में इसे ‘रोइमाह कोंपनि’ के नाम से जानते हैं। भारत के नागा आदिवासियों में इसे ‘किचुकी’, भोटिया में ‘रंगबंग’, मुंडा और हो में ‘गितीओड़ा’, उराँव में ‘जोंखएड़पा’ या ‘धुमकुड़िया’, गोंड में ‘घोटुल’, मलेर में ‘कोडाडा’, भुइयाँ में ‘धांगर बासा’, इत्यादि के नाम से इसे जाना जाता है। 1950 के दशक के बाद इनका पारंपरिक अस्तित्व प्रगति के दौड़ में धूमिल हो गया।

आदिवासियों के बीच युवा गृह समाजीकरण की एक सशक्त संरचना थी। दैनिक कार्यों के पश्चात शाम को आदिवासी युवा एवं युवती इन युवा गृह में नियमबद्ध तरीक़े से रचनात्मक कार्य सीखते थे एवं यह उनका रात्रि विश्राम का स्थान भी था। धुमकुड़िया में युवा अपनी संस्कृति, देशज ज्ञान, धार्मिक परंपरा, गीत नृत्य, लोक कथा, लोकगीत, पुरखों की गौरव गाथा इत्यादि को सुनता सीखता था। यहाँ वे मूल रूप से कठिनाई और चुनौतियों से भरी भावी जीवन के लिए वे तैयार होते थे। यौन शिक्षा एवं सही जीवन साथी चुनने का अवसर मिलता था। सामाजिक दायित्वों की समझ, सामूहिक भावना एवं निर्णय लेने की क्षमता का यहाँ विकास होता था। धुमकुड़िया या युवा गृह को लिंग एवं आयु के आधार पर विभाजित किया जाता था। पुरुषों एवं महिलाओं का अलग निवास स्थान होता था, किंतु अनेक आदिवासी समुदायों में एक युवा गृह में पुरुष एवं स्त्री एक साथ निवास करते थे। युवा गृह में सदस्यता लगभग अनिवार्य थी और वरीय सदस्यों की यह उत्तरदायित्व होती थी कि वो, कनिष्ठ सदस्यों को समाजिक ज़िम्मेदारी की मौखिक शिक्षा दें।

यह धुमकुड़िया या युवा गृह बहुत वैज्ञानिक ढंग से स्थापित किया गया था। मनोविज्ञान कहता है कि एक युवा सबसे अधिक प्रभावी रूप से अपने ही आयु वर्ग में सीखता है। आज दुनिया लिव-इन को आधार मानकर स्वयं को अत्याधुनिक होने का दम्भ भरती है। नियम सम्मत जीवन साथी के चुनाव की यह प्रक्रिया आदिवासियों में प्राचीन समय से उपस्थिति थी। वर्ष 2006 में, विभिन्न राष्ट्र के हम युवा साथी, संयुक्त राष्ट्र संघ में एक संयुक्त ज्ञापन सौंप कर युवाओं को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करने के लिए दबाव बना रहे थे। यह बड़ा तार्किक माँग था। सामान्यतः निर्णय लेने वाले महानुभाव अपने कार्यकाल के अंतिम पड़ाव में होते हैं। उनका निर्णय युवा एवं भावी पीढ़ी को ही सबसे अधिक प्रभावित करती है। और यहाँ, आदिवासी समाज के इन युवा गृहों में निर्णय लेने एवं अगुवाई का प्रावधान प्राचीन समय से ही उपस्थित थी।

तत्कालीन आदिवासी कल्याण आयुक्त, श्री नमन लकड़ा (भा प्र से) एक पारिवारिक मित्र होने के नाते समाजिक मुद्दों पर उनसे बराबर चर्चा होती रहती है। एक दिन उन्होंने झारखंड सरकार के धुमकुड़िया स्थापना के विषय में चर्चा की। मन प्रफ़ुल्लित हो उठा किंतु संशय के साथ। आधुनिक युग में अब धुमकुड़िया का क्या अर्थ होगा?

राँची के करमटोली चौक में मुख्यमंत्री श्री हेमंत सोरेन एवं आदिवासी कल्याण मंत्री श्री चंपई सोरेन की अगुवाई में एक वृहद् धुमकुड़िया भवन की नींव रखी गयी। माननीय मुख्यमंत्री ने तब कहा था कि आदिवासी परंपरा और संस्कृति को बचाना ‘हम’ सभी की जिम्मेदारी है। आदिवासी कल्याण मंत्री श्री चंपई सोरेन ने धुमकुड़िया जैसे पारंपरिक संरचना को जीवित और अर्थपूर्ण बनाए रखने के लिए सबको मिल कर प्रयास करने की बात कही थी। दोनो आदिवासी अगुवाओं के कथन का गूढ़ अर्थ है। संस्कृति किसी एक व्यक्ति की या किसी सरकार विशेष की नहीं है। संस्कृति एक समाजिक धरोहर है। सरकार संरचना खड़ी कर सकती है, किंतु धुमकुड़िया जैसे पारम्परिक संरचनाओं को बिना समाजिक भागीदारी के जीवित या गतिमान रखना असंभव है। हेमंत सरकार ने जो पहल किया है वो एक समाजिक-सांस्कृतिक चेतना की मज़बूत नींव हो सकती है। पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा भी हमेशा इसी सांस्कृतिक चेतना के द्वारा आदिवासी समाज में सार्थक बदलाव की वकालत किया करते थे।

धुमकुड़िया या युवा गृह के प्राचीन प्रकार्य को पुनः जीवित करना कितना सार्थक होगा? आधुनिकता के इस दौड़ में ये पारंपरिक ढाँचा क्या करेंगी, इसी संदर्भ में कुछ सुझाव साझा करना चाहता हूँ। ये धुमकुड़िया समाजिक सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक पुनर्जागरण का केंद्र बन सकते हैं। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण बदलाव अपेक्षित है। आधुनिक धुमकुड़िया मात्र युवाओं तक सीमित ना रहे। आदिवासी समाज में बुजुर्गों के अनुभव एवं ज्ञान का एक विशिष्ट स्थान है। यह अनमोल ज्ञान आपको किसी किताब में नहीं मिलेंगे। आज जो आदिवासी समाज से पारंपरिक ज्ञान, समाजिक-सांस्कृतिक बोध, आदिवासी मौलिकता विलुप्त हो रही है, समृद्ध गीत संगीत अपभ्रंश हो रहे हैं, ऐसे चुनौतियों को इन्हीं बुजुर्गों के संरक्षण में प्रभावी रूप से रोका या नियंत्रित किया जा सकता है।

इस युवा गृह के एक भाग को हम ग्रामीण पुस्तकालय के रूप में विकसित कर सकते हैं और सौर्य ऊर्जा की उपलब्धता हो तो सायंकाल अध्ययन संभव होगा। यह सामान्य अवलोकन है कि किसी भी गाँव में कुछ स्नातक स्तर के युवा या बहुवें अवश्य होतीं है। ऐसे युवाओं और बहुवों को धुमकुड़िया में पठन पाठन की ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए। अनिरुद्ध कृष्णा ने दशकों तक ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसंधान किया और उनके बहुचर्चित पुस्तक-‘द ब्रोकन लैडर’ में वे कहते हैं कि समाजिक बदलाव वैसे गाँव में अधिक सफल हो पायी है जहां लोगों में समाजिक सामूहिकता की भावना प्रबल थी।

ऐसे अनेक ग़ैर सरकारी और स्वयं सेवी संस्थाएँ हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार में उत्कृष्ट कार्य कर रही हैं। ऐसे संस्थाओं को सीधे इन धुमकुड़ियों से जोड़ा जाए। ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्टार्ट-अप की असीम सम्भावनाएँ हैं। आदिवासी क्या बस कुदाल चलाएगा? मैं अपने छात्रों से कहता हूँ भी कि आप सभों के पास ज़मीन है और ऐसे में सरकारी-ग़ैर सरकारी योजनाओं का लाभ अवश्य लें। इस प्रयास में जो सफल उद्यमी बनेंगे वो एक रोल मॉडल बनकर अन्यत्र धुमकुड़िया में दूसरों को प्रशिक्षित एवं अभिप्रेरित करेंगे। करमटोली स्थित धुमकुड़िया के पास पर्याप्त भूमि है और यहाँ विशिष्ट ‘आदिवासी हाट’ का निर्माण संभव है। इस प्रकार के आधुनिक आदिवासी हाट फ़िलिपींस एवं अन्य दक्षिण ऐशियाई देशों में देखने को मिलती हैं। करमटोली स्थित धुमकुड़िया, झारखंड राज्य के आदिवासियों के लिए विभिन्न आर्थिक उपक्रमों का केंद्र बन सकती है।

आज आप इनकार नहीं कर सकते कि आदिवासी युवाओं में नशा-पान और आपराधिक प्रवृति बढ़ती चली जा रही है। धुमकुड़िया एक शारीरिक प्रशिक्षण सह क्रीड़ा सुविधा केंद्र बनें। मेरे ग्रामीण छात्रों में फ़ौज उनकी पहली प्राथमिकता होती है। गर्व होता है छात्र सब इन्सपेक्टर अरुण मुंडरी पर, जिन्होंने ग्रामीण युवाओं को शारीरिक प्रशिक्षण ग्रामीण क्षेत्रों में स्वतः देना शुरू किया। इन्हीं केंद्रों से हम राष्ट्रीय एवं अंतर राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों की तलाश और तराश सकते हैं। ये धुमकुड़िया केंद्र भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) और खिलाड़ी के बीच मध्यस्था का कार्य कर सकते हैं। हमारे आदिवासी युवाओं को नशा और अपराध से दूर रखने में यह एक बड़ी भूमिका निभा सकती है। जब एक सम्मिलित प्रयास होगा तो निश्चित ही युवाओं में अनुशासन, समाजिक-सांस्कृतिक दायित्वों का बोध होगा।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मॉडल को हम विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भी स्थापित कर सकते हैं। प्रत्येक शनिवार को विद्यालय एवं विश्वविद्यालयों में सांस्कृतिक परिधान में पारंपरिक गीत नृत्य, लोक कथा, वर्तमान समाजिक राजनैतिक सहित अनेक मुद्दों पर चर्चा परिचर्चा हो सकती है। यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जितने भी सुझाव साझा किए गए हैं वो सभी स्थानों में एक समान अक्षरशः लागू नहीं हो सकते हैं। इन सुझावों को पुनः ग्रामीण या शहरी स्तर पर अनेक सकारात्मक बदलाव के साथ लागू किया जा सकता है।

आप सवाल कर सकते हैं कि ऐसे अनेक सामुदायिक भवन पहले से स्थापित हैं, फिर इस धुमकुड़िया में ऐसा क्या है? उत्तर सांस्कृतिक प्रतीक-वाद में निहित है। ऊपर धुमकुड़िया का इतिहास बताने का उद्देश्य ही यही है। जंगल में भी पेड़ हैं और सरना-स्थल में भी पेड़ हैं। लेकिन दोनो स्थलों की पवित्रता, प्रकार्य, गतिविधियाँ एवं महत्व में वृहद् अंतर है। ऐसे ही किसी अन्य भवन एवं इन नव स्थापित धुमकुड़िया भवनों में अंतर होगा। धुमकुड़िया के समृद्ध ऐतिहासिक धरोहर के आधार पर हम इसे, कल-आज-कल तक जीवित रखेंगे।

एक विश्वास यह भी है कि अनेक आदिवासी-ग़ैर आदिवासी परिवार निश्चित मदद के लिए आगे आएँगे। ऐसे अनेक आदिवासी हैं जो विभिन्न पदों पर झारखंड या देश-विदेश में आसीन हैं। वो अपने अपने पैतृक गाँव में इन धुमकुड़िया को सहयोग एवं सशक्त बना कर आप अपने ‘माय-माटी’ के क़र्ज़ को उतारने का प्रयास कर सकते हैं। बीते लेख-‘अपने अंदर के सहिया को जगाइए’, का यह असर हुआ कि डाक्टर माया कुमार के सुपुत्र ने अमेरिका के शिकागो शहर से ‘ई-सहिया’ का प्रस्ताव दिया है। उन्होंने, झारखंड के किसी आदिवासी परिवार के बच्चों के शिक्षा संबंधी सहयोग का प्रस्ताव दिया है।


लेखक परिचय:
डॉ. अभय सागर मिंज एक अंतर्राष्ट्रीय-स्तर के जाने-माने शिक्षाविद हैं, जो संप्रति डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय (रांची) के मानवशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक के तौर पर कार्यरत हैं। आदिवासी समाज की सांस्कृतिक विरासत “धुमकुड़िया” को एक नया नजरिया देता उनका यह बहुचर्चित आलेख 17 जून 2022 को प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है।

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