झारखंड की राजधानी रांची में लांस नायक अलबर्ट एक्का की एक प्रतिमा सैनिक लिबास में मशीनगन ताने लगी हुई है, जो 1971 के युद्ध में भारत-बांग्लादेश की जीत की कहानी बयां करती है। जब दुनिया के मानचित्र पर एक नए देश का उदय हो रहा था, तब तक झारखंड के गुमला का यह यह योद्धा अपनी छाप छोड़कर अस्त हो गया था, लेकिन इस परमवीर के बिना शायद यह जीत सम्भव नहीं हो पाती।
लांस नायक अलबर्ट एक्का गुमला जिले के जारी गांव के थे, जहां उरांव जनजाति के लोग अधिक संख्या में रहते थे। कुडुख भाषा में इस गांव को जड़ी कहते हैं, लेकिन अंग्रेजी उच्चारण ने इस गांव को जड़ी से जारी कर दिया। पहले गुमला रांची का हिस्सा था, अब जिला बन गया है। उनके पिता का नाम जूलियस एक्का और माँ का नाम मरियम एक्का था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा सी. सी. स्कूल पटराटोली से की थी और माध्यमिक परीक्षा भिखमपुर मिडल स्कूल से पास की थी। इनका जन्म स्थल जरी गांव चैनपुर तहसील में पड़ने वाला एक आदिवासी क्षेत्र है जो झारखण्ड राज्य का हिस्सा है।
1971 की लड़ाई को भारत के पक्ष में किया
शुरू से ही अल्बर्ट एक्का का शौक फौज में जाने का था। उनकी यह इच्छा दिसंबर 1962 में पूरी हुई और बिहार रेजिमेंट में भर्ती होकर उन्होंने देश की सेवा शुरू की। बेहतरीन हॉकी खिलाड़ी और युद्ध कौशल में माहिर एक्का का बाद में गठित 14 गार्ड्स में तैनाती कर दी गयी। उनकी जांबाजी को देखते हुए ही उन्हें लांस नायक बना दिया गया।
फिर वे पाकिस्तान के जबड़े से कराहते बांग्लादेश को आजाद कराने चल पड़े। ऐसा बहुत कम सैनिकों को नसीब हुआ जिन्होंने चीन के साथ भी युद्ध किया और पाकिस्तान को भी धूल चटाई। यह खुशनसीबी अलबर्ट के हिस्से आई और इसी बहादुर के हिस्से परमवीर चक्र भी आया।
3 दिसंबर, 1971 की वह काली रात थी जब चारों ओर गोलियां चल रही थीं। कहीं से आग के गोले निकल रहे थे, तो कहीं से हैंड ग्रेनेड व मोर्टार छोड़े जा रहे थे। अलबर्ट का मोर्चा गंगा सागर के पास था। यहीं पास में रेलवे स्टेशन था, जहां 165 पाकिस्तानी सैनिक अड्डा जमाए बैठे थे। 3 दिसंबर की रात 2.30 बजे अलबर्ट और उनके साथी रेलवे स्टेशन के पार गए। उस वक्त अलबर्ट 29 साल के थे।
20 गोलियां लगने तक किया दुश्मनों का सामना
भारतीय सेना की 2 कंपनियां अपने टारगेट की ओर आगे बढ़ी। इनमें एक की कमान एक्का के पास थी। पाकिस्तानी सेना दुसरे मोर्चे पर पूरी तैयारी के साथ मौजूद था। उसने रेलवे स्टेशन के आसपास की पूरी जगह को माइंस से पाट दिया था, ताकि भारतीय सेना को रोका जा सके। दूसरी तरफ़ बड़ी संख्या में उसने ऑटोमेटिक मशीन गन के साथ सैनिकों को तैनात कर रखा था। कुल मिलाकर गंगासागर रेलवे स्टेशन तक पहुंचना मौत को गले लगाना जैसा था। जैसे ही उन्होंने रेलवे स्टेशन पार किया, पाकिस्तानी सेना के एक संतरी ने उन्हें रूकने के लिए कहा, उन्होंने उसे गोली मारकर दुश्मन के इलाके में घुस गए।
उन्होंने पाक सेना का बंकर उड़ा दिया, 65 पाक सैनिकों को मार गिराया और 15 को कैद कर लिया। रेलवे के आउटर सिग्नल इलाका को कब्जे में लेने के बाद वापस आने के दौरान टाप टावर मकान के ऊपर में खड़ी पाक सेना ने अचानक मशीनगन से उन पर हमला कर दिया। इसमें 15 भारतीय सैनिक मारे गए।
तब अलबर्ट गोलियों की बौछार के बीच दौड़ते हुए टाप टावर पर चढ़ गए और मशीनगन को कब्जे में लेकर दुश्मनों को तहस-नहस कर दिया। इस दौरान अलबर्ट एक्का को 20 से अधिक गोलियां लगीं। उनका शरीर छलनी हो गया था और वह टाप टावर से नीचे गिर गए और अपनी अंतिम सांस ली। उस दिन अगर एलबर्ट एक्का नहीं रहते तो शायद 150 जवान मारे जाते।
गंगा सागर की जीत के बाद दक्षिणी और दक्षिणी पश्चिमी छोर से अखौरा तक पहुंचना भारतीय सेना के लिए आसान हो गया। इसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय सेना के हमले के आगे दुश्मन को अखौरा भी छोड़कर भागना पड़ा। तीन दिसंबर से 16 दिसंबर, 1971 तक यह युद्ध चला और बांग्लादेश का उदय हुआ। इस नए देश के निर्माण में झारखंड के इस सपूत के साथ रांची और आसपास के करीब 26 जवानों ने अपनी जान की आहुति दी थी।
इस युद्ध में सर्वोच्च बलिदान देने के लिए उन्हें सर्वोच्च सैन्य सम्मान ‘परमवीर चक्र’ से अलंकृत किया गया। वहीं बांग्लादेश ने एक्का को ‘फ्रेंड्स ऑफ़ लिबरेशन वॉर ऑनर’ से नवाजा। रांची में उनके नाम पर एक राजमार्ग भी बना है।