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अक्षम्य है आदिवासी क्रांतिकारियों के साथ की गई नाइंसाफी !

आदिवासी समाज के क्रांतिकारियों के साथ इतिहासकारों ने जो नाइंसाफी की है, वह माफी-योग्य नहीं है। इस देश के आजादी की लड़ाई की शुरूआत हमारे योद्धाओं ने की, फिर इस से संबंधित हर एक क्रांति को हमने अपने रक्त से सींचा, लेकिन इतिहासकारों का शायद अलग एजेंडा था।

पहले बात बाबा तिलका मांझी की, जिन्होंने आदिवासी भाइयों के साथ 1778 में रामगढ़ कैंप से अंग्रेजों को खदेड़ दिया था, फिर 1784 में उन्होंने अंग्रेज अफसर क्लीवलैंड को मार दिया था। उनके नाम पर भागलपुर (बिहार) में एक विश्वविद्यालय है, लेकिन इतिहास की किताबों में उनका जिक्र नहीं मिलता।

उसके बाद कोल्हान के वीर योद्धा पोटो हो ने 1837 में, सेरेंगसिया घाटी में अंग्रेजी फौज के साथ हुए भीषण छापामार युद्ध का नेतृत्व किया था। इस युद्ध में ब्रिटिश फौज की करारी हार हुई थी और वे पीछे हटने पर मजबूर हो गए थे। लेकिन, पोटो हो को राष्ट्रीय स्तर पर कोई नहीं पहचानता।

उसके बाद संथाल हूल यानी संथाल क्रांति हुई थी, जिसने अंग्रेजों को झकझोर कर रख दिया। साहिबगंज के भोगनाडीह में हजारों संथाल आदिवासियों ने 30 जून 1855 को एक बैठक कर वीर सिदो मुर्मू को अपना राजा, कान्हू मुर्मू को मंत्री, चाँद को प्रशासक और भैरव को सेनापति चुना था। इस दौरान 400 से अधिक गाँवों के करीब 60,000 लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया।

पारम्परिक हथियारों से लैस इन लोगों ने “अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो” का नारा दिया। 7 जुलाई 1855 को संथाली वीरों ने दमनकारी दारोगा और 9 सिपाहियों को घेरकर मार डाला। बड़ी संख्या में अत्याचारी जमींदार और महाजन मारे गए। उनके डर से भागलपुर का मजिस्ट्रेट राजमहल भाग निकला। सिदो- कान्हू- चांद- भैरव की सेना फिर बंगाल के मुर्शिदाबाद की ओर बढ़ती गई।

हूल विद्रोह के दौरान, संथालो के भय से बचने के लिए अंग्रेजो ने पाकुड़ (झारखंड) में मार्टिलो टावर का निर्माण कराया गया था जो आज भी है। उस टावर में छिप कर अंग्रेज सिपाही उसके छेदों से बंदूक निकाल कर गोलियां चलाया करते थे। इस विद्रोह में फूलो-झानो के नेतृत्व में महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। पाकुड़ में इन्होंने 21 अंग्रजों को कुल्हाड़ी से काट डाला था।

इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दीं। संथाल के पूरे इलाके को सेना के सुपर्द कर दिया, गांव के गांव जलाए जाने लगे। चांद और भैरव को अंग्रेजों ने मार डाला। इसके बाद सिदो और कान्हू को भोगनाडीह में ही पेड़ से लटकाकर 26 जुलाई 1855 को फांसी दी गई।

संथाल की माटी के इन्हीं शहीदों की याद में हर साल 30 जून को “हूल दिवस” मनाया जाता है। अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने लिखा है कि इस युद्ध मे दौरान बीस हजार से ज्यादा क्रांतिकारियों ने जान गंवाई थी, जबकि हजारों को हजारीबाग जेल में बंद किया गया था।

इसी विद्रोह ने भारतीयों को यह भरोसा दिलाया कि अंग्रेजों को हराना मुमकिन है, जिस के बाद 1857 का सिपाही विद्रोह हुआ। इस क्रांति के फलस्वरूप अंग्रेजों को इस क्षेत्र के प्रति अपनी नीति बदलनी पड़ी, और वे आदिवासियों को उनके अधिकार देने हेतु विवश हो गए।

संथाल हूल के बाद वर्ष 1900 मे मैक पेरहांस कमेटी ने आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा के लिए एक बंदोबस्ती अधिनियम बनाया। इसमें यह प्रावधान किया गया कि आदिवासी की जमीन, कोई दूसरा आदिवासी ही खरीद सकता है। खरीदने और बेचने वालों के घर एक ही इलाके में होना चाहिए। झारखंड में आदिवासी जमीन का हस्तांतरण आज भी इन शर्तों को पूरा करने के बाद करने का प्रावधान है।

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