राजस्थान के मानगढ़ में 17 नवंबर 1913 को जलियांवाला बाग से भी भीषण हत्याकांड हुआ था, जिसमें कर्नल शटन ने लाखों निहत्थे भील आदिवासियों पर गोलियां चलवा दी थी। इस घटना में 1500 से ज्यादा लोग शहीद हुये थे।
उन दिनों स्थानीय लोग ब्रितानी हुकूमत और देसी रियासतों के टैक्स, बेगारी प्रथा समेत कई अत्याचारों से जूझ रहे थे। गोविन्द गुरु के आह्वान पर उस दौरान पड़े अकाल से प्रभावित लाखों आदिवासी खेती पर लिए जा रहे कर को घटाने, धार्मिक परम्पराओं के पालन की छूट के साथ बेगार के नाम पर परेशान किए जाने के खिलाफ एकजुट हुये थे।
गोविन्द गुरु की “सम्प सभा” के ये समर्थक नशे तथा कुरीतियों से दूर रहने, बच्चों को शिक्षा से जोड़ने, आपसी विवादों को पंचायत में सुलझाने, व्यभिचार आदि से दूर रहने एवं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का संदेश देते थे। गोविंद गुरु के आंदोलन का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि देसी रियासतों ने ब्रितानी हुकूमत से इनके आंदोलन की शिकायत शुरू कर दी।
ब्रितानी हुकूमत ने 13 और 15 नवंबर को गोविंद गुरु से मानगढ़ पहाड़ी खाली करने के लिए कहा था। हालाँकि, गोविंद गुरु ने यहाँ यज्ञ के लिए लोगों के जुटने की बात कही थी। अंग्रेजों को लगा कि ये लोग उनके खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं।
उस दिन मेजर हैमिल्टन और उनके तीन अफसरों ने सुबह 6.30 बजे हथियारबंद फ़ौज के साथ मानगढ़ पहाड़ी को तीन ओर से घेर लिया था। सुबह आठ बज कर दस मिनट पर मशीनगनों एवं तोपों से शुरू हुई गोलीबारी 10 बजे तक चली। स्थानीय लोग बताते हैं कि “गोलीबारी तब रोकी गई, जब अंग्रेज अफसर ने देखा कि एक मृत महिला से लिपट कर उसका बच्चा स्तनपान कर रहा है।”
पुलिस ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर पहले फांसी की सजा दी, फिर विद्रोह की आशंका से उसे आजीवन कारावास में बदल दिया गया। 1923 में जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहान्त हुआ।
घटना के करीब आठ दशक बाद राजस्थान सरकार ने नरसंहार में मारे गए सैकड़ों लोगों की याद में 27 मई, 1999 को शहीद स्मारक बनवाया, तो मानगढ़ को पहचान मिली। हालांकि, इतिहास ने कभी इस नरसंहार की घटना के साथ न्याय नहीं किया।