राजस्थान के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में गैस सब्सिडी की हालत खराब होने से ग्रामीणों के लिए सुविधा कम दुविधा ज्यादा हो गई है। आलम यह है कि गैस सिलेंडर और चूल्हे कबाड़ में तब्दील होते जा रहे हैं। गैस सिलेंडर के दाम लगातार बढऩे से यह स्थिति उत्पन्न हुई है। इसके चलते आदिवासी बहुल क्षेत्रों में गैस सब्सिडी की योजना उपयोगी साबित नहीं हो पा रही है। आदिवासी महिलाओं को गैस सिलेंडर और चूल्हे होने के बावजूद जंगलों में जाकर लकडिय़ां लेकर आनी पड़ रही हैं। इसके बाद ही भोजन का प्रबंध हो पाता है।
सिलेंडर को भरवाना गरीब लोगों के बूते से बाहर हो गया है। दिन-ब-दिन सिलेंडर की कीमतें बढ़ती जा रही हैं, वहीं सब्सिडी की हालत खस्ता है। आदिवासी बहुल क्षेत्र के लोग कृषि और मजदूरी पर ही निर्भर हैं। इसलिए सरकार को इन क्षेत्रों में सब्सिडी ज्यादा देनी चाहिए, ताकि महिलाओं को चूल्हे के धुएं से निजात मिले और वे भी सरकार की इस महत्त्वाकांक्षी योजना से लाभान्वित हो सकें। शहर के लोग तो जैसे तैसे अपना काम चला लेते हैं, लेकिन आदिवासी अंचल के लिए यह जरूरी है।
1 मई 2016 को पूरे देश में योजना की शुरुआत की गई थी। इस योजना के तहत देश भर के लगभग 8 करोड़ परिवारों को गैस कनेक्शन दिए जा चुके हैं। केंद्र सरकार ने इसी योजना को 10 अगस्त 2021 को फिर से लॉन्च किया है और इस बार इस योजना को 2.0 कहा जा रहा है। योजना की शुरुआत में उदयपुर के उपखण्ड क्षेत्र झाड़ोल की ग्राम पंचायतों की हजारों महिलाओं को गैस सब्सिडी योजना के अंतर्गत कनेक्शन दिए गए थे। जब गैस कनेक्शन दिए गए, तब इनकी आंखों में चमक थी। अब जैसे-जैसे दाम बढ़ रहे हैं, इनके माथे पर चिंता की लकीरें बढ़ती जा रही हैं।
आज हालत यह है कि केंद्र सरकार द्वारा पहली बार जो गैस टंकी दी गई थी, अब वह घरों में शो-पीस की तरह रखी है। जहां कहीं उपयोग में आ भी रही है, तो पूरा भोजन नहीं बनाकर छोटे-मोटे कामों में ही इस्तेमाल किया जा रहा है। सरकार की यह बेहतरीन महत्त्वाकांक्षी योजना तभी उपयोगी साबित हो पाएगी, जब दूर-दराज के आदिवासी पिछड़े क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए सरकार विशेष सब्सिडी का पैकेज दिया जाए। इससे महिलाओं को भी राहत मिलेगी और तभी केंद्र सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजना का उद्देश्य पूरा हो पाएगा। (पत्रिका)