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आदिवासी युवा और बिजनेस के क्षेत्र की चुनौतियाँ

जब मैं कहता हूँ कि ‘क्यों’ तो यहाँ दो दृष्टिकोण हैं। पहला कि आदिवासी युवा सफल व्यवसायी क्यों नहीं बन सकता है- जिसके पीछे सामाजिक सांस्कृतिक कारक है और दूसरा कि आदिवासी युवा में भी क्षमता है कि वह सफल व्यवसायी बन सकता है।

कुछ माह पहले अपने पैतृक गाँव जाना हुआ था। गुमला ज़िले का कांसीर बाज़ार दशकों पुराना हाट है। शुक्रवार का दिन था और मैं बचपन की यादों को जीने के लिए वहाँ रुका। मेरे बचपन के मित्र बिनई वहाँ टमाटर बेचने आए थे। हम दोनों मित्र मिलें और उराँव/सादरी भाषा में संवाद शुरू हुआ। उस दिन बिनई का ‘सौदा’ अच्छा हुआ था। हाट, सप्ताह में दो दिन लगा करता था, शुक्रवार और मंगलवार। बिनई ख़ुश होकर बोला-‘होलक मोर सप्ताह भाईर कर’। मैंने कहा- ‘ने ना, मंगर के नी आबे? बिनई चहकते हुए बोले, ‘नाहीं, होलक कि’। इस छोटे से संवाद में गहराई है।मेरा मित्र सप्ताह भर के लिए धनोपार्जन कर के संतुष्ट था, और यहाँ हम सात पुश्त के लिए जोड़ने में लगे हैं।

टमाटर का एक बड़ा झोला उसने जबरन मेरी गाड़ी में रख दिया। मैं अभी संशय में ही था कि पैसे दूँ या नहीं क्योंकि मुझे डर था कि वह इसे अन्यथा ना ले ले। उसने सफल सौदे के उपलक्ष में कहा- ‘चल भई, सुक्रो भौजी जग तानि हाँड़ी पियब’। हम दोनो मित्र वहाँ गए और सीमित मात्रा में हँड़िया का सेवन किया और इधर उधर की बातें की। जब वहाँ से चलने की बारी आयी तो मैंने हिम्मत कर के कहा- ‘राह ना, सुक्रो भौजी ले कचिया मोय देबुं’। वही हुआ जिसका डर था। पलट कर उसने कहा- ‘बड़का साहब बईन गेले तोयं तो।’ मै शांत हो गया। सोचने लगा कि अब तो शहर में हम बिल को ‘स्प्लिट’ किया करते हैं और यह अपनी मित्रता के लिए अपने छोटे से खज़ाने को लुटाने के लिए तैयार था।

इस वाक़या का जिक्र यहाँ महत्वपूर्ण है। आदिवासी समाज में आर्थिक संरचना अन्य समाज से भिन्न है। बीसवीं शताब्दी के मध्य से आदिवासी समाज की आर्थिक संरचना का अध्ययन का आरंभ हुआ था। कार्ल पोल्यनि की बहुचर्चित पुस्तक- ‘ट्रेड एंड मार्केट इन दी अर्ली एमपायर्स’ उपरोक्त घटना को स्पष्ट करती है। आदिवासी समुदाय में आर्थिक संबंध से भी अधिक महत्वपूर्ण, सामाजिक संबंध होते हैं। इस सामाजिक-आर्थिक संबंध में नफ़ा नुक़सान कहीं परोक्ष में धूमिल अवस्था में रहते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण कारक है, हमारी सामुदायिक स्वामित्व। जो जल जंगल ज़मीन मेरी है, वह उतना ही मेरे समाज के प्रत्येक व्यक्ति का है। कुछ दशकों पहले तक, आदिवासियों में व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा ही नहीं थी। और इसलिए ‘सात पुश्त’ तक धन-संपत्ति का संचय अर्थहीन था।

इस प्रकार की आर्थिक संरचना हमें विश्व के अनेक समुदायों में देखने को मिलती है। अफ़्रीका के जूनी, न्यूज़ीलैंड के माओरी या उत्तरी अमेरिका के क्वाकिटुल आदिवासी समुदाय में ऐसे अनेक सामाजिक सांस्कृतिक प्रथाएँ हैं, जो सामुदायिक स्वामित्व को बनाये रखते हैं और साथ ही धन संपत्ति के संचय को होने नहीं देते। क्वाकिटुल आदिवासियों में एक ऐसी ही प्रथा है जिसे हम ‘पोटलैच’ के नाम से जानते हैं। इसके अंतर्गत, कोई भी व्यक्ति धन-संपति संचय के लिए स्वतंत्र होता है किन्तु जब वह इसे अर्जित कर लेता है तो फिर उसे किसी दिन सामूहिक भोज देना होता है। यह इतना भव्य होता है कि भोज के पश्चात उस व्यक्ति के पास अगले दिन कुछ भी नहीं होता है। यह चक्र उस समाज में अनेक लोगों के द्वारा चलता रहता है।

आदिवासी समाज के सामाजिक-आर्थिक संरचना को कार्ल मार्क्स के सहयोगी मार्सेल मॉस ने अपनी पुस्तक- ‘द गिफ्ट’ में बेहतर ढंग से समझाया है। जब आप उपहार देते हैं या प्राप्त करते हैं तो अनेक बार वह सीधे तौर पर भोज्य नहीं होता है। ऐसे में किसी गिफ्ट या उपहार का आर्थिक महत्व, सामाजिक एवं व्यक्तिगत महत्व की तुलना में कम होता है। यही सामाजिक प्रगाढ़ता, समन्वय और बन्धुत्व, आदिवासी समाज की आर्थिक संरचना का आधार है। ऐतिहासिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से हमें कभी जोड़ तोड़ करना आया ही नहीं। कभी कभी मुझे लगता है कि शायद इसलिए मुझे गणित विषय में कभी रुचि ही नहीं थी।

आज जब हम अपने गाँव घर से निकल आये हैं और कुछ व्यवसाय के लिए प्रयासरत हैं, हमारी सांस्कृतिक मनःस्थिति वृहद् समुदाय के जोड़ घटाव से अभी भी सानिध्य नहीं रख पाती हैं। यह कठिन है। अनेक ऐसे आदिवासी युवा हैं जो कठिन प्रयास कर के व्यवसाय के क्षेत्र में उड़ान भरने के कगार पर हैं। किंतु जब हम बाज़ार संरचना को निकट से देखते हैं तो यह उपभोक्ता आधारित होता है। बिना सामाजिक सहयोग के, मात्र स्वयं के प्रयास से आप आगे बढ़ सकते हैं किंतु वह चुनौतीपूर्ण और संघर्षमय होगा। सामाजिक सहभागिता और सहयोग अनिवार्य हो जाता है। और इसलिए लगता है कि आदिवासी युवा बिज़नेस नहीं कर सकता।

दूसरा दृष्टिकोण है-क्यों, बिजनेस नहीं कर सकता क्या आदिवासी युवा? बिलकुल कर सकता है।आदिवासी समाज में व्यवसाय करने की क्षमता है।हाल के दिनों में ऐसे अनेक आदिवासी युवा हैं जिन्होंने एक लम्बी उड़ान का प्रयास किया है। ऐसे अनेक उदाहरण उन्होंने स्थापित किया है जिसमें आदिवासी युवाओं ने संस्थागत रूप से व्यवसाय को एक कैरियर के रूप में चुना है। इस क्रम में उनका नेटवर्क निश्चित ही मज़बूत हुआ है। किंतु जैसा कि मैंने कहा कि बाज़ार उपभोक्ता आधारित है। ऐसे में समाज का यह उत्तरदायित्व बनता है कि ऐसे युवाओं को सहयोग करें और उन्हें प्रोत्साहित करें। यह भी आवश्यक हो जाता है कि जो बाज़ार के नीति हैं उन्हें व्यक्तिगत संबंधों से दूर रखें। नव युवकों को भी अपने व्यवसाय के प्रति गंभीरता दिखानी होगी। आपके उत्पाद एवं सेवा उत्कृष्ट होनी चाहिए।

जब मैंने अनेक ऐसे युवा व्यवसायी से बात की तो एक बड़ी चुनौती उन्हें अपने व्यवसाय के संचालन में नज़र आता है। युवा व्यवसायी गंभीर हो गए हैं किंतु कोई भी व्यवसाय एक अकेले व्यक्ति के द्वारा नहीं चलता है। यह एक शृंखला होती है जहाँ श्रम शक्ति की समग्रता देखने को मिलती है। अनेक यहाँ हित-धारक होते हैं और जब सभी में एक सामंजस्य बैठेगा तभी कोई भी व्यवसाय सफल हो पाएगा।

ऐसे में आदिवासी युवाओं के समक्ष एक विकट चुनौती है। सीमित संसाधन एवं सीमित सहयोग में यदि वे अपने व्यवसाय को स्थापित करने में आंशिक रूप से सफल हो पाए हैं तो निश्चित ही वे प्रशंसा के पात्र हैं। ऐसे ही मेरे एक छात्र हैं विकास पूर्ति। इस वर्ष के मानवशास्त्र स्नातकोत्तर में ‘गोल्ड मेडलिस्ट’ और मेरे विचार से जीवन में भी। सड़क से बिज़नेस शुरू कर के आज मात्र 26 की उम्र में वो लाखों का व्यवसाय कर रहे हैं। कठिन परिश्रम का कोई शॉर्टकट नहीं होता है। जिस दिन शॉर्टकट की आदत हो जाएगी, आपकी स्टैमिना स्वतः लंबी दौड़ के लिए कम हो जाएगी। और ज़िंदगी एक लंबी दौड़ है। विकास कठिन परिश्रम से कभी नहीं भागे, मन में कभी अहम नहीं रखा, सीखने की ग़ज़ब की ललक है, पढ़ने का शौक़ है। बिना किसी एमबीए की डिग्री के भी, छोटी उम्र से ही देख कर, सुन कर, पूछ कर, उन्होंने बिज़नेस के गूढ़ नियमों को जाना। अनुभव से बड़ा कोई ‘गुरु’ नहीं।

आने वाली पीढ़ी को हमें सबलता प्रदान करनी होगी। नहीं तो आज के जो युवा अधपकी शिक्षा हासिल कर रहे हैं, ना तो वे हल पकड़ने में सक्षम हैं ना ही नौकरी पाने में। आज का युवा डेढ़ जीबी में व्यस्त है और जीवन मस्त है।

लेखक परिचय:
डॉ. अभय सागर मिंज एक अंतर्राष्ट्रीय-स्तर के जाने-माने शिक्षाविद हैं, जो संप्रति डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय (रांची) के मानवशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक के तौर पर कार्यरत हैं। बिजनेस कर रहे आदिवासी युवाओं की चुनौतियों की पड़ताल करता उनका यह बहुचर्चित आलेख 17 फरवरी 2023 को प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है।

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