हाल में नए सत्र के विद्यार्थियों के साथ मैंने एक समाजिक प्रयोग किया। ‘आगमन समारोह’ में मैंने छात्रों को उनके अभिभावकों के साथ आने के लिए आमंत्रित किया। उद्देश्य था कि आदिवासी छात्रों में जो शिक्षा के प्रति उदासीनता है, उसे दूर करने का प्रयास हो। वर्तमान परिदृश्य में यह आवश्यक था की एक फ़ासला जो शिक्षक और अभिभावकों के बीच है वह भी दूर हो। जब अभिभावक और शिक्षक दोनो का चिंतन केंद्र छात्र हैतो यह अति आवश्यक हो जाता है कि एक बेहतर संवाद अभिभावक और शिक्षक के बीच स्थापित हो तभी छात्र के बेहतर भविष्य के समग्र प्रयास संभव और सफल हो सकेंगे। हमारे समय में अभिभावक कहा करते थे कि ‘दसवीं की परीक्षा अच्छे से कर लो, फिर भविष्य सुरक्षित है।’ किंतु वर्तमान में मेरा मानना है कि हमारे बच्चों के लिए मैट्रिक से भी अधिक महत्वपूर्ण कॉलेज के प्रारंभिक काल है जहां छात्रों का मार्गदर्शन अत्यंत आवश्यक है।
इसी सामाजिक प्रयोग के अंतर्गत मैंने एक प्रपत्र अभिभावकों को भरने दिया था। कुछ मूल 4-5 प्रश्न थे जिनका जवाब अभिभावकों को देना था। अपने बच्चे की अच्छाई-कमियों का ज़िक्र करना था। भरी सभागार में जब मैंने प्रश्न किया था कि कितनों के बच्चे सुबह पाँच बजे उठते हैं? मात्र कुछ एक अभिभावक ने अपने हाथ खड़े कर सहमति जतायी थी। और जब कार्यक्रम समाप्त हुआ और प्रपत्र वापस प्राप्त हुए तो सभी ने अपने बच्चों के अच्छाइयों का ही मात्र ज़िक्र किया था। अपने अवलोकन में मैंने यह पाया कि बच्चे अपने अभिभावकों को प्रपत्र भरने के लिए निर्देश दे रहे थे और दबाव भी बना रहे थे कि अच्छा ही लिखो। इस घटना की चर्चा महत्वपूर्ण है क्योंकि, अपने शैक्षिक कार्य के दौरान मैंने पाया है कि आदिवासी समाज के बच्चे- “अपने बाप के भी बाप बन जाते हैं”। कहने का अर्थ यह हुआ कि हमारे समाज के बच्चे अपने माता पिता को अपनी जिद और इच्छा के आगे आसानी से झुका लेते हैं। यह बहुत सामान्य अवलोकन है।
अनेक आदिवासी परिवारों में अभिभावक, शायद प्रथम पीढ़ी के हैं जो गाँव से बाहर कहीं कार्यरत है। आपने कठिन परिस्थिति और संघर्ष से स्वयं को बनाया है। हल-बैल, रोपा-डोभा, खेत-खलिहान, फिर स्कूल इत्यादि के बाद आज कोई मुक़ाम हासिल किया है। मेरी माँ, श्रीमती महबाइत बखला, पूर्व विभागाध्यक्ष, भूगोल विभाग, राँची विश्वविद्यालय जब पहली बार निर्मला कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए गाँव से आयीं थीं तो खाली पैर थीं। उनके प्रतिदिन के रास्ते में संत जेवियर स्कूल आता था। शिक्षा का महत्व उन्हें पता था और वो बताती हैं कि उसी काल में उन्होंने ठान लिया था कि यदि पुत्र हुआ तो वो यहीं पढ़ेगा।
आप नहीं चाहते हैं कि आपके बच्चे भी उन संघर्षों का सामना करें। यहीं चूक होती है। मैं यह नहीं कहता कि बच्चों को पुनः उन परिस्थितियों और चुनौतियों में धकेला जाये, लेकिन यह भी आवश्यक है कि इन बच्चों को इन चुनौतियों का बोध कराया जाये। और इसके लिए उनमें आदिवासियत के सार और नैतिकता को जीवित करना ही होगा। किंतु आज के बच्चों को आदिवासियत की नैतिकता से जोड़े रखना आसान नहीं। आप लाख कोशिश कर लीजिए, अपनी संघर्ष गाथा सुना दीजिए, आज के बच्चों को इसमें कोई रुचि नहीं है। उल्टा आपको सुनना पड़ सकता है कि आपका तो बस यही कहानी रहता है। और धीरे धीरे आपकी संघर्षगाथा, उपहास में परिवर्तित हो जाती है।
शिक्षा का उद्देश्य मात्र नौकरी पाना नहीं है। यह अवसर अब आदिवासी समाज के लिए ही नहीं अनेकों के लिए दुर्लभ होता जा रहा है। शिक्षा को मैं हमेशा ही सकारात्मक परिवर्तन का आधार मानता हूँ। शिक्षा का उद्देश्य, हमारे आदिवासी बच्चों को सही और ग़लत में फर्क़ सिखाना है। और यह शिक्षा मात्र स्कूली शिक्षा के द्वारा संभव नहीं, यह आपके आदिवासियत से भी संभव है। बार बार मैं आदिवासियत पर ज़ोर दे रहा हूँ। समाज का भी व्यक्तित्व होता है। आदिवासियत की संस्कृति, सामाजिक एवं नैतिक मूल्य आपके समाज के व्यक्तित्व के आधार हैं। विख्यात मानवशास्त्री, मारग्रेट मीड नेन्यूगिनी के तीन आदिवासी समाज, अरापेश, मुण्डगमोर और शंबूली के संस्कृति और उस समाज के व्यक्तित्व पर उसके प्रभाव का गहन का अध्ययन किया था। यह तीनों समाज एक ही भौगोलिक क्षेत्र में निवास करते थे, किंतु उनमें सांस्कृतिक भिन्नता थी। इसी भिन्नता के कारण, तीनों आदिवासी समाज में जबरदस्त व्यवहारिक और व्यक्तित्व में फर्क था।
आपकी संस्कृति ही आपके समाज का व्यक्तित्व है। इसी के अनुरूप आपका व्यवहार और जीवन शैली नियंत्रित एवं संचालित होती है। वर्तमान में, हम शहरी होकर इस आदिवासियत से छूटते जा रहे हैं। हमारी स्तिथि ऐसी होती जा रही है कि ना हम घर के हुए ना ही घाट के। इस आदिवासियत की नैतिकता को पुनः जीवित करना होगा। इसके लिए आपको वापस अपने जड़ तक जाना होगा। अपने गाँव जाना होगा। बच्चों को थोड़ा अभाव कि अनुभूति हो, आजा-आजी, नाना-नानी का सानिध्य प्राप्त हो। इससे उनमें ग्रामीण जीवन और आदिवासी जीवन शैली की समझ विकसित होगी। इस सतत प्रयास से आशा है कि बच्चों में सकारात्मक परिवर्तन होंगे। जब बच्चों में सही ग़लत का बोध हो जाएगा तो फिर आपको और कुछ करने की आवश्यकता नहीं होगी। उसके बाद वो जीवन में कुछ अच्छा जरूर कर लेंगे। शहरी अभिभावक से अनुरोध होगा कि अपने गाँव आप साहब बन के नहीं जायें। जब आप स्वयं, अपने ग्रामीण संबंधियों के बीच एक फ़ासला रखेंगे तो बच्चे भी वहीं सीखेंगे और वो आदिवासियत की आत्मीयता कभी नहीं सीख सकेंगे।
आदिवासी अभिभावकों को और अधिक सजग और परिश्रम करना होगा। सुबह पाँच बजे उठने और बच्चों को उठाने का संकल्प सबसे महत्वपूर्ण होगा। समय से कार्य करना आसान नहीं होता है। लेकिन जिस दिन आप समय का कद्र करना शुरू करेंगे, आपके बच्चे स्वयं अनुशासित हो जाएँगे। बच्चों को पुस्तकों से और पठन कुर्सी सेनिरंतरता के साथ बैठना सिखाइए। और एक प्रयास अपनेबच्चों के साथ मिलकर करें। बजाए कि वह कितना समय पढ़ाई में व्यतीत करता है, ठीक उल्टा इस बात पर चर्चा और अवलोकन कीजिए कि वह पूरे दिन में उसने कितना समय किन किन चीज़ों में व्यर्थ गँवाता है। आप अचंभित रह जाएँगे कि उसके दिनचर्या में जो सकारात्मक कार्य उसने किया होगा वह बेकार के कार्यों की तुलना में नगण्य होंगे।
‘आगमन समारोह’ में जब मैंने अभिभावकों से वार्ता किया तो उत्तर अपेक्षित थे। वो पूरी तरह से अनभिज्ञ थे कि उनके बच्चे आगे जीवन में क्या करेंगे। परिश्रम तो आपको भी करना होगा। बच्चों को अनुशासित करना ही होगा। और अनुशासन और परिश्रम वह आपको देख कर ही सीखेगा। मेरे छात्र सुचित रॉय ने एक बार सोशल मीडिया में अपने पुत्र ‘प्रेयस’ का फोटो साझा किया था। सुचित अपनी धर्मपत्नी के साथ प्रतिदिन सुबह पाँच बजे उठ कर पढ़ाई करते हैं। उनको देखा देखी, उनका पुत्र भी किताब लेकर बैठ जाता है। शॉल में लिपटा, पुस्तक में लीन उस चार वर्षीय बालक की फोटो हृदय को छू गई।
ऐसा नहीं है कि सारे आदिवासी बच्चे या अभिभावक इसी प्रकार के अनुभव रखते हैं। सोशल मीडिया के मित्र राज सिन्मत ने एक बड़ा मार्मिक लेख, गाँव से आकर, शहर में अध्ययन को लेकर संघर्ष पर आधारित लेख लिखा था। ग्रामीण परिवेश से संबंधित संघर् षऔर पीड़ा- किराया, किताब, रोज़गार, फॉर्म भरने से लेकर, भोजन, कब तक पढ़ोगे, कब नौकरी लगेगा, इत्यादि को उन्होंने कुशलता से दर्शाया था। एक पक्ष यह भी है जहां छात्र ईमानदारी सेकर रहे हैं।
आदिवासी अभिभावकों को थोड़ी कड़ाई भी लानी होगी। बच्चों के क्रियाकलाप के प्रति सजग और जागरूक रहना होगा। रोजगार और शिक्षा को लेकर सचेत रहना होगा क्योंकि आपके बच्चे ही आपके मूल धन हैं। अनावश्यक प्रशंसा और असमय प्रोत्साहन से बचें। मेरा बच्चा बहुत तेज है, सब जानता है। मोबाइल में तो ह्वाट्सऐप भी चला लेता है। तकनीकी तौर पर आनेवाली पीढ़ी हमेशा हमारी पीढ़ी से आगे होगी, यह सर्वमान्य तथ्य है। इसलिए इन छोटी छोटी सामान्य क्षमताओं को अकारण उनकी दक्षता नहीं मान लेना है। यदि नहीं तो फिर ये बच्चे हमारे ‘बाप’ ही बनेंगे।
इस कथन के साथ आलेख का अंत करना चाहूँगा- “जब तक मैं समझ पाया कि मेरे पिता सही थे, और मैं गलत, आज मेरा पुत्र मुझे गलत समझने लगा है”।
लेखक परिचय:
डॉ. अभय सागर मिंज एक अंतर्राष्ट्रीय-स्तर के जाने-माने शिक्षाविद हैं, जो संप्रति डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय (रांची) के मानवशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक के तौर पर कार्यरत हैं। ना सिर्फ आदिवासी समाज बल्कि हर तबके के छात्रों तथा अभिभावकों का मार्गदर्शन करता उनका यह बहुचर्चित आलेख 25 नवम्बर 2022 को प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है।