झारखंड में एक तबका आज सोशल मीडिया पर झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन को भारत रत्न देने की माँग कर रहा है। शिबू सोरेन ने महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था और बाद में उनके और उनकी पार्टी द्वारा चलाये गए आंदोलन की वजह से ही अलग झारखंड राज्य का निर्माण हुआ।
राजनीति से इतर, देश भर के आदिवासी समाज में उन्हें दिशोम गुरु के नाम से एक सम्मानित दर्जा प्राप्त है। उनको भारत रत्न देने के समर्थन में राजस्थान के बड़े भाजपा नेता डॉ. किरोड़ी लाल मीणा, मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविन्द नेताम सरीखे लोग सामने आए हैं।
किसी आदिवासी को नहीं मिला ‘भारत रत्न’
वैसे एक कटु सत्य यह है कि देश की आजादी के 75 वर्षों बाद भी, आदिवासी समाज के किसी व्यक्ति को आज तक यह सम्मान नहीं मिला, जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार इस देश की आबादी का करीब 9% हिस्सा आदिवासी हैं। अभी की जनसंख्या के हिसाब से यह आंकड़ा करीब 13 करोड़ है।
यह हालात तब है, जब हमारे समाज के पास देश के आजादी की पहली लड़ाई लड़ने वाले बाबा तिलका मांझी, सिपाही विद्रोह से पहले अंग्रेजो को हराने वाले पोटो हो और संथाल हूल के नायक वीर सिदो-कान्हू, शहीद तेलंगा खड़िया, नीलाम्बर- पीताम्बर, जतरा भगत, लक्ष्मण नाइक, नारायण सिंह, गोविंद गुरु, पा तोगन संगमा, सुरेंद्र साईं जैसे अनगिनत नाम हैं।
धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा के बारे दुनिया जानती है, जिन्होंने हाशिये पर रखे गए आदिवासी समाज को जागृत कर, उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया। सन 1889 में जब टंट्या भील को फांसी दी गई, तब न्यूयॉर्क टाइम्स ने उन्हें “भारत का रॉबिनहुड” बताया।
भारत के लिए ओलिंपिक में हॉकी का पहला गोल्ड मेडल जीतने वाली टीम के कप्तान जयपाल सिंह मुंडा बाद में संविधान सभा के सदस्य भी बने। बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस शख्स के नाम पर किसी को क्या आपत्ति हुई होगी, यह समझ से परे है। शिक्षा, खेल, सामरिक, साहित्य, कला, राजनीति समेत लगभग सभी क्षेत्रों में आदिवासियों ने अपनी कबिलियत का लोहा मनवाया है, कई बार हमारे समाज के लोगों को पद्मश्री समेत अन्य सम्मान भी मिले हैं, लेकिन भारत रत्न नहीं।
हमें यह लिखने में तनिक भी गुरेज नहीं है कि जिस देश के आजादी के लड़ाई की कल्पना भी आदिवासियों के बिना नहीं की जा सकती, हमें उसी देश में 75 वर्षों में एक बार भी “भारत रत्न” जैसे सम्मान के योग्य नहीं समझा गया। क्या अब यह गलती सुधारी जाएगी?
आज जब महामहिम द्रौपदी मुर्मू देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन हैं, तब आदिवासी समाज से कुछ लोगों को यह सम्मान मिलना, वास्तव में उस गलती/ अन्याय को सुधारने की एक कोशिश मानी जायेगी, जिसे इस देश के हुक्मरानों ने बारम्बार किया है।