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बीजापुर एनकाउंटर फर्जी था, जिसमें नौ आदिवासी मारे गए थे: जांच आयोग

बीजापुर के कथित एनकाउंटर की जाँच के लिए गठित जस्टिस वीके अग्रवाल आयोग ने, आठ साल बाद सौंपी अपनी रिपोर्ट में यह दावा किया है कि – “छत्तीसगढ़ के बीजापुर के एड़समेटा गांव में 17 मई 2013 को सुरक्षाबलों ने निर्दोष आदिवासियों को घेर कर एकतरफ़ा फायरिंग की थी, जिसमें नौ आदिवासी मारे गए थे। मृतकों में तीन नाबालिग भी शामिल थे।”

यह रिपोर्ट सामने आने के बाद बस्तर में होने वाली मुठभेड़ की अन्य घटनाओं को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। बीजेपी की रमन सिंह सरकार के कार्यकाल में हुई इस घटना के समय, पुलिस ने सीआरपीएफ़ की कोबरा बटालियन के साथ एक मुठभेड़ में नौ माओवादियों के मारे जाने और भारी मात्रा में हथियार बरामद करने का दावा किया था।

आयोग ने क्या कहा?
जस्टिस वी के अग्रवाल आयोग ने पुलिस के इस दावे को पूरी तरह से फर्जी करार दिया है। आयोग ने इस गोलीबारी में एक कॉन्स्टेबल की मौत को लेकर कहा है कि उनकी मौत भी, उनके ही साथियों की गोली से हुई थी। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सुरक्षाबलों को बेहतर प्रशिक्षण और आवश्यक उपकरण उपलब्ध कराए जाने की अनुशंसा की है।

जस्टिस वी के अग्रवाल की न्यायिक जाँच आयोग की यह दूसरी रिपोर्ट है, जिसकी जाँच में यह बात सामने आई है कि माओवादियों के नाम पर भोले-भाले आदिवासियों की हत्या की गई है। इससे पहले दिसंबर 2019 में जस्टिस वी के अग्रवाल आयोग ने, जून 2012 में बीजापुर के सारकेगुड़ा में हुए कथित मुठभेड़ में 17 माओवादियों के मारे जाने के पुलिस के दावे को फर्जी करार देते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा था कि मारे जाने वाले लोग गांव के आदिवासी थे।

इस रिपोर्ट के बाद भी, आज तक राज्य सरकार ने “17 निर्दोष आदिवासियों के मारे जाने” के मामले में एक एफआईआर तक दर्ज नहीं की है और रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। हालांकि, ताज़ा रिपोर्ट को मंत्रिमंडल के समक्ष पेश किया गया है। राज्य सरकार ने कहा है कि इसे विधानसभा के पटल पर पेश करने के बाद, कानूनी कार्रवाई की दिशा में सरकार आगे बढ़ेगी।

जांच में लगे आठ साल
बीजापुर के गंगालूर थाना के एड़समेटा गांव में 17-18 मई 2013 की रात, कथित मुठभेड़ की घटना को लेकर व्यापक विरोध के बाद राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज, वी के अग्रवाल के रूप में एकल जाँच आयोग का गठन किया था। जाँच आयोग का कार्यकाल छह महीने तय किया गया था लेकिन आठ साल बाद, अब कहीं जा कर आयोग की रिपोर्ट पेश की गई है। आठ बिंदुओं पर की गई जाँच की गई, अंग्रेजी में प्रस्तुत इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यह घटना “दहशत में प्रतिक्रिया” और सुरक्षा बलों द्वारा गोलीबारी के कारण हुई।

मारे जाने वालों में तीन नाबालिग़ करम बुदरू, पुनेम लखू और करम गुड्डू समेत करम जोगा, पुनेम सोनू, करम पांडू, करम मासा, करम सोमलू और बुधराम गांव के आदिवासी थे। मंत्रिमंडल में पेश रिपोर्ट की संक्षेपिका में कहा गया है कि जलती हुई आग के आसपास इकट्ठे लोगों को देख कर, ग़लती से उन्हें नक्सली संगठन का सदस्य मान लिया गया था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि विश्वसनीय सबूतों से यह संतोषजनक रुप से साबित हो गया है कि आग के आसपास व्यक्तियों की सभा ‘बीज पंडूम’ उत्सव के लिए थी।

आयोग ने साफ-साफ कहा है कि मारे जाने वाले लोग नक्सली संगठन के नहीं थे। आयोग ने इस गोलीबारी में मारे गए कॉन्स्टेबल देव प्रकाश को लेकर कहा है कि देव प्रकाश की मौत, सुरक्षाबल के अपने ही साथियों की क्रॉस फायरिंग में हुई थी। आयोग की रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि सुरक्षाबल के जवानों ने 44 राउंड फ़ायरिंग की थी, जिसमें अकेले देव प्रकाश ने 18 राउंड फायरिंग की थी।

आयोग ने कहा है कि सभी घायलों और मारे गए लोगों के परिजन को राज्य सरकार ने मुआवज़े की पेशकश की थी। जबकि राज्य की नीति में मृतक या घायल नक्सलियों या उनके परिजनों को मुआवज़ा नहीं दिया जाता। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य सरकार ने घायल व मृतकों को नक्सली के रुप में स्वीकार नहीं किया था।

सुरक्षाबलों पर गंभीर टिप्पणी
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सुरक्षाबल न तो आवश्यक रक्षा उपकरणों से पूरी तरह सुसज्जित थे, न ही उन्हें उचित जानकारी दी गई थी और ना ही नागरिकों के साथ टकराव से बचने के निर्देश दिए गये थे। अपनी रिपोर्ट में आयोग ने कहा है कि मार्चिंग ऑपरेशन शुरु करने से पहले, उचित और आवश्यक सावधानियों का पूरी तरह से पालन नहीं किया गया।

सुरक्षाबल के जवानों में दहशत को लेकर आयोग ने टिप्पणी की है कि सुरक्षाबलों द्वारा की गई गोलीबारी आत्मरक्षा में नहीं थी, बल्कि यह गोलीबारी उनकी ओर से “गलत धारणा” और “घबराहट की प्रतिक्रिया” के कारण प्रतीत होती है। जाँच आयोग ने कहा है कि यदि सुरक्षा बलों को आत्मरक्षा के पर्याप्त उपकरणों से सुसज्जित किया गया होता और उन्हें बेहतर खुफिया जानकारी प्रदान की जाती और उन्होंने उचित सावधानी बरती होती तो संभवतः गोलीबारी से बचा जा सकता था।

आयोग ने सुरक्षाबलों के लिए बेहतर प्रशिक्षण मॉड्यूल की ज़रुरत पर बल देते हुए कहा है कि सुरक्षा बलों को सामाजिक परिस्थितियों और धार्मिक त्यौहारों से भी परिचित कराया जाना चाहिए। सुरक्षाबलों को स्थानीय लोगों के साथ अधिक बातचीत के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। आयोग ने कहा है कि सुरक्षाबलों को भी स्थानीय त्यौहारों और भोले-भाले निवासियों की गतिविधियों में भाग लेने की सलाह दी जानी चाहिए, ताकि सुरक्षा बलों के सदस्यों को उनके रहन-सहन और रीति रिवाजों से अवगत कराया जा सके। इससे आपसी विश्वास पैदा होगा और महत्वपूर्ण खुफिया सूचनाओं की गुणवत्ता और मात्रा में भी सुधार हो सकता है।

इसके साथ-साथ उन्हें आधुनिक गैजेट्स, संचार के साधन, बुलेटप्रूफ़ जैकेट, नाइट विज़न डिवाइस और रक्षा के ऐसे उपकरण उपलब्ध कराए जाने चाहिए, ताकि बल के सदस्य अधिक सुरक्षित और आत्मविश्वास महसूस करें और दबाव व जल्दीबाजी में कोई कार्य न करें। सुरक्षाबलों के मानसिक ताने-बाने में सुधार के लिए आयोग ने समय-समय पर विस्तृत पाठ्यक्रम प्रदान करने की अनुशंसा के साथ-साथ आयोग ने कहा है कि सुरक्षाबल के सदस्यों को गुरिल्ला मोड में सामरिक लड़ाई का मुक़ाबला करने के लिए व्यापक प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए, जिसे आमतौर पर नक्सल या आतंकवादी संगठनों द्वारा अपनाया जाता है।

आगे क्या?
एड़समेटा कांड में राज्य सरकार ने एक एसआईटी भी बनाई थी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह तथ्य सामने आया कि पाँच सालों में एसआईटी केवल पाँच लोगों का बयान भर ले पाई। इसके बाद तीन मई 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले की जाँच सीबीआई से कराने के निर्देश दिए। इस मामले में चार जुलाई 2019 को सीबीआई ने अज्ञात लोगों के खिलाफ आपराधिक षडयंत्र, हत्या और हत्या की कोशिश का मामला दर्ज कर उसकी जाँच शुरु कर दी है। लेकिन अभी तक सीबीआई की जाँच रिपोर्ट नहीं आई है।

राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कहना है कि एड़समेटा पर न्यायिक जाँच आयोग की रिपोर्ट विधानसभा में पेश की जाएगी। उन्होंने पत्रकारों से बातचीत में कहा, “रिपोर्ट आ चुकी है, वो बात बिल्कुल सही है. लेकिन विधानसभा में जब तक उसे पेश नहीं करेंगे, वो सार्वजनिक नहीं की जा सकती। उसमें गोपनीयता का भी एक सवाल है।”

वहीं राज्य सरकार के प्रवक्ता और मंत्री रवींद्र चौबे का कहना है कि विधानसभा में रिपोर्ट पेश हो जाए, उसके बाद आगे की कार्रवाई की जाएगी। उन्होंने कहा, “उसके बाद सरकार की जो प्रक्रिया होती है, कार्रवाई करने की, अब उस दिशा में कानूनी राय लेकर लेकर कार्रवाई करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे।”

हालांकि, सरकार के आश्वासन को संदेह भरी नजरों से देखा जा रहा है। मानवाधिकार मामलों में सक्रिय हाईकोर्ट की अधिवक्ता और आम आदमी पार्टी की प्रवक्ता प्रियंका शुक्ला का कहना है कि राज्य सरकार आदिवासियों की हत्या के मामलों में हमेशा चुप्पी साध लेती है। उनका कहना है कि भाजपा और कांग्रेस सरकार में आदिवासियों के फ़र्ज़ी मुठभेड़ के सैकड़ों मामले हैं, जिनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। इन सबकी स्वतंत्र, तय समय सीमा में जाँच और उस पर कार्रवाई ज़रुरी है और ऐसे मामलों में ज़िम्मेदारी भी तय होनी चाहिए।

प्रियंका कहती हैं, “हालत ये है कि कोर्ट के आदेश या जाँच आयोगों की रिपोर्टों को भी सरकार रद्दी के टोकरी में डाल देती है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को बताना चाहिए कि 17 आदिवासियों के फर्जी मुठभेड़ मामले की न्यायिक जाँच आयोग की रिपोर्ट दिसंबर 2019 में विधानसभा में पेश की गई थी। उस रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के बजाय उसे ठंडे बस्ते में डाल कर, हत्या के अभियुक्तों को भूपेश बघेल क्यों बचाने में जुटे हुए हैं?” (साभार: BBC)

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