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छत्तीसगढ़ में आत्महत्या करने वाले 42 फीसदी किसान आदिवासी

रायपुर। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव ज़िले के आदिवासी किसान सुरेश नेताम ने हफ़्ते भर पहले फांसी लगा कर जान दे दी। उनकी पत्नी गैंदकुंवर का आरोप है कि उनकी तीन एकड़ 80 डिसमिल ज़मीन है, जिसमें धान की खेती की गई थी लेकिन पटवारी ने उनके पति को बताया कि उनकी ज़मीन का रकबा केवल डेढ़ एकड़ दर्ज है, और समर्थन मूल्य पर वो केवल डेढ़ एकड़ ज़मीन का ही धान बेच सकते हैं।

गैंदकुंवर का कहना है कि पति पर खेती के लिए करीब 45 हज़ार रुपये का कर्ज था। कई बार पटवारी के यहां चक्कर लगाने के बाद भी आंकड़ों में सुधार नहीं हुआ तो तनाव में उनके पति ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। हालांकि, ज़िला प्रशासन ऐसी किसी गड़बड़ी से इनकार कर रहा है और मामले की जांच की बात कह रहा है।

सुरेश नेताम की ही तरह पिछले साल कोंडागांव ज़िले के मारंगपुरी गांव के आदिवासी किसान धनीराम मरकाम का मामला पूरे राज्य में चर्चित हुआ था। धनीराम ने जब अपना धान बेचने के लिए रिश्तेदार को पटवारी के पास भेजा तो उन्हें बताया गया कि वे समर्थन मूल्य पर केवल 11 क्विंटल धान ही बेच सकते हैं। सरकारी रिकॉर्ड में उनकी धान की ज़मीन का रकबा कम करके दर्ज कर दिया गया था – 6.72 एकड़ के बजाए केवल 30 डिसमिल। धनीराम के परिजन बताते हैं कि धनीराम ने बैंक से 61 हज़ार रुपयों से अधिक का कर्ज़ ले रखा था। साहुकारों का भी उधार था।

उन्हें उम्मीद थी कि समर्थन मूल्य पर 100 क्विंटल धान बेचने के बाद उनका कर्ज़ चुकता हो जाएगा। लेकिन वो न हो सका। चालीस साल के धनीराम ने पिछले साल दो दिसंबर को खेत में फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। धनीराम की पत्नी सुमित्रा बाई के अनुसार, “धान नहीं बिक पाने की चिंता में पूरी रात वो सो नहीं पाये, तड़के उठे और खेत जाने की बात कह कर घर से निकल गये. बाद में उनकी मौत की ख़बर आई।”

शुरू में कलेक्टर ने किसान को शराबी बता कर पल्ला झाड़ने की कोशिश की लेकिन जांच के बाद इस मामले में राज्य सरकार ने पटवारी को निलंबित किया और तहसीलदार को नोटिस भी थमाया। लेकिन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की मानें तो राज्य की सरकारी फाइलों में न तो सुरेश नेताम न ही धनीराम का नाम आत्महत्या के रिकॉड में दर्ज़ है।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने हाल ही में विधानसभा में बयान दिया है कि राज्य में किसानों की मौत या आत्महत्या के आंकड़ें सरकार के पास नहीं हैं। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है, जिसके नेता राहुल गांधी ने संसद में केंद्र सरकार के पास किसान आंदोलन में मारे गए किसानों के आंकड़े न होने पर बीजेपी पर जम कर निशाना साधा था।

हमारी पड़ताल
विधानसभा में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के इस बयान पर बीबीसी ने पड़ताल की। बीबीसी को राज्य के कृषि विभाग से जो आंकड़े मिले हैं, उसके अनुसार पिछले क़रीब दो सालों में (साल 2020 में एक जनवरी से 23 नवंबर तक) छत्तीसगढ़ में 230 किसानों ने आत्महत्या की है। राज्य सरकार के मुताबिक़ आत्महत्या करने वाले किसानों में सर्वाधिक 97 आदिवासी समुदाय से हैं। 42 किसान अनुसूचित जाति के हैं। ये आँकड़े चौकाने वाले हैं।

हालांकि, किसानों की आत्महत्या के सरकारी आंकड़ों में आम तौर पर जाति का उल्लेख नहीं होता है। साल 2014 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी ने पहली बार जातिवार आंकड़े एकत्र किए थे लेकिन उन्हें बाद में रिपोर्ट में शामिल नहीं किया गया। राज्य के कृषि मंत्री और सरकार के प्रवक्ता रवींद्र चौबे अपनी ही सरकार और ख़ुद के विभाग के आंकड़ों को विश्वसनीय नहीं मानते।

पहले तो उन्होंने बीबीसी से कहा, “असल में आंकड़े ही सही नहीं हैं। किसी भी आत्महत्या के आंकड़े में किसान शब्द लिखा नहीं जाता। छत्तीसगढ़ में किसी किसान के सामने अभाव जैसी कोई बात नहीं है। हमने 2500 रुपये में किसानों से धान ख़रीदना शुरु किया, राजीव गांधी न्याय योजना में उन्हें पैसे मिल रहे हैं, गोधन न्याय योजना में हमने सौ करोड़ से अधिक दिया है। ऐसे में इन आंकड़ों को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।”

लेकिन जब उन्हें याद दिलाया गया कि ये आंकड़े उनके कृषि विभाग के ही हैं तो रवींद्र चौबे ने कहा, “विभाग का आंकड़ा है, वह तो ठीक है क्योंकि गांव में रहने वाले 95 प्रतिशत लोग किसान ही होते हैं।”

दूसरी ओर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता रमन सिंह, राज्य सरकार पर किसानों की आत्महत्या के आंकड़े छुपाने का आरोप लगाते हैं। यानी जो आरोप केंद्र में बीजेपी पर कांग्रेस लगा रही है, छत्तीसगढ़ में वही आरोप बीजेपी कांग्रेस पर लगा रही है। लेकिन, किसानों की सुध कोई नहीं ले रहा।

किसानों की आत्महत्या के आंकड़े नहीं होने का मसला विपक्षी दल बीजेपी के विधायक डमरुधर पुजारी के किसानों से संबंधित प्रश्न पूछे जाने के बाद सामने आया। विधानसभा में उन्होंने पूछा था कि पहली जनवरी 2019 से 10 अक्टूबर 2021 तक छत्तीसगढ़ में दुर्घटना में मरने वाले या आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या कितनी है और उनके परिजनों को कितनी मुआवज़ा या सहायता राशि दी गई है?

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने उत्तर दिया, “प्रदेश में किसानों की मृत्यु, दुर्घटना से या आत्महत्या से होने पर संबंधितों द्वारा संबंधित क्षेत्र के थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई जाती है। प्रथम सूचना रिपोर्ट में मृतक किसान था अथवा नहीं, इसका उल्लेख नहीं होता है और इस प्रकार की जानकारी का संधारण नहीं किया जाता है।”

आंकड़ों का खेल
मध्य भारत का धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में किसानों की हत्या के मामले हमेशा से बढ़े ही हैं। देश में अपराध और दुर्घटनाओं के आंकड़ों को समन्वित करने वाले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी की रिपोर्टों में छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या के आंकड़े अधिक रहे हैं।

बीजेपी शासनकाल में साल 2006 से 2010 के बीच हर साल किसान आत्महत्या के औसतन 1555 मामले दर्ज हुए हैं। यानी, हर दिन औसतन चार से अधिक किसानों ने राज्य में आत्महत्या की। किसानों की आत्महत्या को लेकर जब सवाल तेज होने लगे तो साल 2011 में एनसीआरबी की रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या का मामला शून्य पर जा पहुंचा। साल 2012 में केवल चार किसानों की आत्महत्या को स्वीकारा गया वहीं, 2013 में किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा फिर से शून्य पर जा पहुंचा।

किसानों की ख़ुदकुशी का सिलसिला पिछली सरकार के शासनकाल की तरह कांग्रेस हुकूमत में भी जारी है। हालांकि, सिर्फ़ आंकड़ों के आधार पर देखने पर ये पहले की तुलना में कम दिखता है। यहां तक कि राज्य सरकार के कृषि विभाग के आंकड़ों और एनसीआरबी, जिसे राज्य सरकार ही आंकड़े उपलब्ध कराती है, के आंकड़ों में भी भारी अंतर है। एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि 2020 में छत्तीसगढ़ में कृषि क्षेत्र के 537 लोगों ने आत्महत्या की।

किसान आत्महत्या और आदिवासी
ये पहला मौका है जब आदिवासी किसानों की आत्महत्या से जुड़ा आंकड़ा सरकार की तरफ़ से सामने आया है। छत्तीसगढ़ किसान संघ के संयोजक और आदिवासी नेता सुदेश टीकम आदिवासी किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को चिंताजनक मानते हैं। उनका कहना है कि ये किसानों की आत्महत्या के पूरे आंकड़े नहीं हैं, फिर भी अगर इन पर यकीन कर लिया जाए तो 2020 में आत्महत्या करने वाले 42 फ़ीसदी किसान आदिवासी समाज से हैं, जो भयावह है।

आदिवासियों के बीच आत्महत्या के मामले आम नहीं हैं. उनकी जीवनशैली में आर्थिक अनिश्चितता कभी बड़ा मुद्दा नहीं रहा है. लेकिन, पिछले कुछ सालों में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परंपरागत जीवन शैली बदल चुकी है. संकट ये है कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की इस बदलती जीवन शैली और आत्महत्या जैसे मुद्दों पर शोध को लेकर काम ही कम हुआ है.

सुदेश टीकम कहते हैं, “बरसों से हाशिये पर रह रहे आदिवासी समाज में मैं ऐसे किसानों को जानता हूं, जिन्होंने कर्ज़ लेकर एक धोती ख़रीदी और उस धोती के चक्कर में उसकी पूरी ज़मीन साहुकारों ने हथिया ली। अब वह अपनी ही ज़मीन पर मज़दूर है। राष्ट्रीयकृत बैंकों का कर्ज़ा अगर अकाल के कारण जमा नहीं हो पाया तो बैंक उसके दरवाज़े पर पहुंच जाता है। स्वाभिमानी आदिवासी के लिए यह सब बर्दाश्त कर पाना मुश्किल होता है।”

सुदेश टीकम का कहना है कि तथाकथित आधुनिक सभ्यता के दबाव के कारण भी आदिवासी किसान चकाचौंध में आया और उसने शहरी तौर-तरीकों को अपनाने की कोशिश की। इस चक्कर में उसकी अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विरासत भी खो गई। ऐसे में वह कहीं का नहीं रहा।

कृषि वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर संकेत ठाकुर का कहना है कि आदिवासी समाज का एक बड़ा तबका अपनी आजीविका के लिए कृषि के साथ-साथ वनोपज पर निर्भर रहता है। कोरोना ने दोनों पर अपना असर डाला।

डॉक्टर संकेत ठाकुर कहते हैं, “केवल खेती के कारण आत्महत्या करने की नौबत आई हो, यह कह पाना मुश्किल है। आत्महत्या के पीछे कई और कारण हो सकते हैं लेकिन जब तक सरकार पारदर्शिता के साथ हरेक आत्महत्या के कारण का विश्लेषण नहीं करेगी, तब तक सही वजहों को नहीं ढूंढा जा सकता।” (बीबीसी हिंदी)

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