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झारखंड की नियोजन नीति: खतियान से ओपन तक !

रांची। झारखंड कैबिनेट द्वारा नई नियोजन नीति स्वीकृत किए जाने के बाद झारखंड कर्मचारी चयन आयोग ने नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू कर दी है। इस संबंध में जेएसएससी द्वारा पहला विज्ञापन जारी किया गया, जिसके तहत राज्य में प्रयोगशाला सहायकों की भर्ती की जाएगी।

झारखंड में नई सरकार बनने के बाद दो साल कोरोना-काल में गुजर गए, तत्पश्चात सरकार द्वारा 2021 की नियोजन नीति में स्थानीय युवाओं को प्राथमिकता देने का प्रयास किया गया था, लेकिन वह रद्द हो गई। उस नीति में स्थानीय स्कूलों से मैट्रिक/इंटर पास होने तथा स्थानीय भाषा व परिवेश की जानकारी की बाध्यता थी। बाहर पढ़ने वाले एकाध फीसदी को छोड़ दें, तो वह नीति स्थानीय छात्रों के लिए काफी बढ़िया थी।

उसके बाद नियुक्ति की प्रकिया शुरू हुई लेकिन भाजपा नेता रमेश हांसदा के नेतृत्व में कुछ बाहरी युवाओं ने उसे हाई कोर्ट में चैलेंज कर दिया। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को 60 फीसदी से ज्यादा आरक्षण देने से रोकने का निर्देश दिया है तो, उसके तहत हाई कोर्ट ने उस नियोजन नीति को रद्द कर दिया। हद तो यह है कि भाजपा ने जिस रमेश हांसदा को इस मुद्दे पर आगे किया, उनकी पत्नी एक बार पंचायत स्तर का चुनाव हार चुकी हैं।

फिर सरकार ने युवाओं की मांग को स्वीकारते हुए 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीय नीति बनाने की ओर कदम बढ़ाया। सितंबर 2022 में झारखंड विधानसभा द्वारा स्थानीय नीति का एक विधेयक झारखंड विधानसभा द्वारा पास कर के, राज्यपाल के मार्फत, केंद्र सरकार को भेजा गया। भारतीय संविधान की धारा 16(3) तथा 35 के अनुसार डोमिसाइल तय करने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार अथवा संसद को है, अतः यह भेजा जाना जरूरी था। लेकिन इस विधेयक को राज्यपाल ने वापस लौटा दिया।

इस विधेयक के लौटने के बाद सरकार के पास दो विकल्प थे – पहला, 1932 के स्थानीय नीति के पास होने का इंतजार किया जाए, उसके बाद उस पर आधारित नियोजन नीति बनाई जाए। दूसरा – एक ऐसी नीति को चुना जाए, जिस पर कोई कानूनी अड़चन ना आने पाए। सरकार ने छात्रों के बीच एक टेलीफोनिक सर्वे किया और साल 2016 से पहले की नीति के अनुरूप जाने का फैसला किया।

यह अस्थायी नियोजन नीति है
गिरीडीह विधायक सुदिव्य कुमार सोनू ने पिछले दिनों झारखंड विधानसभा में यह स्पष्ट किया कि राज्य सरकार जो नियोजन नीति लाई है, वह स्थायी नहीं, बल्कि अस्थायी है। उन्होंने कहा कि झारखंड मुक्ति मोर्चा अपने एजेंडे के साथ खड़ी है व उसे पूरा करने का हर संभव प्रयास करेगी। 1932 आधारित नियोजन नीति बनाने का अधिकार संसद को है इसलिए उसे भेजा गया है। इस बीच नियुक्ति की प्रक्रिया ना रुके, इसलिए यह नीति बनाई गई है।

सरकार के इस फैसले के तुरंत बाद, हमेशा की तरह, फिर विरोध शुरू हो गया। ट्विटर पर एक खास टीम ने लाखों ट्वीट करवाने का दावा किया। हालांकि एक मंत्री तथा विशेषज्ञों के अनुसार उसमें बॉट का इस्तेमाल किया गया और कुछ लोगों ने सैकड़ों-हजारों ट्वीट किए, जिसकी वजह से ट्विटर ने उसे स्पैम मार्क कर दिया और बड़ी संख्या में ट्वीट के बावजूद, यह अभियान भारत के टॉप ट्रेंड में नहीं पहुंच पाया।

यह सही है कि नियोजन नीति को बनाने के बाद, किसी के कोर्ट जाने की सूरत में, उसे डिफेंड करना भी सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन अगले वर्ष पहले लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव हैं, तो सरकार के पास शायद नियोजन/ रोजगार देने के लिए यही एक वर्ष है, जिसे कोर्ट के चक्कर में बर्बाद करना समझदारी नहीं होती।

आरक्षित कोटे के सभी आवेदक स्थानीय होंगे
राज्य के ST, SC, OBC तथा EWS श्रेणी से आरक्षण पाने वाले सभी आवेदकों को स्थानीय प्रमाण पत्र देना होगा, तो उन्हें इस नीति से कोई दिक्कत नहीं होगी।

अगर नई नीति में, सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के खिलाफ जाकर 60% की सीलिंग को पार किया जाता, तो फिर कोई “रमेश” कोर्ट में उसे ले जाता, और एकाध साल बाद फिर वह नीति रद्द होती, तो इस सरकार के कार्यकाल में कोई नियुक्ति नहीं हो पाती। ध्यान रहे कि विवादों की वजह से पिछली सरकार के पांच वर्षों के कार्यकाल में जेपीएससी की एक भी परीक्षा नहीं हो पाई थी, और वर्तमान सरकार वैसी स्थिति नहीं आने देना चाह रही थी।

सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन स्पष्ट है
पिछले साल ही, सुप्रीम कोर्ट ने पिछले सरकार की 2016 वाली नियोजन नीति को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था, और स्पष्ट तौर पर कहा था कि राज्य सरकारें स्थानीय उम्मीदवारों को 100% कोटा नहीं दे सकती। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि (ST, SC, OBC) आरक्षण को 50 फीसदी से ज्यादा नहीं दिया जा सकता, इसके अतिरिक्त EWS कोटे से 10 फीसदी से ज्यादा आरक्षण संभव नहीं है। कई राज्यों में इसमें स्थानीय भाषा या परीक्षा जैसी शर्तें डाली जाती हैं, लेकिन उस परिस्थिति में भी उसके चैलेंज होने का खतरा बना रहता है। अपने वर्तमान कार्यकाल के आखिरी दौर में, शायद सरकार वैसा कोई भी रिस्क नहीं लेना चाह रही है।

बहरहाल, सरकार के फैसले की आलोचना करना आसान है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों और विपक्ष के रवैये के बाद राज्य सरकार के पास शायद कोई और विकल्प बाकी नहीं था। विपक्ष के नेताओं से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि वह नीति क्यों रद्द करवाई गई, जो इस से काफी बेहतर थी? कौन हैं वो लोग, जो नहीं चाहते कि युवाओं को रोजगार मिले? आखिर स्थानीय लोगों के हित में उस नीति को बनाने वाले गलत और रद्द करवाने वाले सही कैसे हो गए?

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