जब सरकार स्थानीय युवाओं के हित में नियोजन नीति लाये, तो कोर्ट जाकर उसे रद्द करवाएंगे।
और जब सरकार मजबूर होकर “ना रद्द होने वाली नीति” लाये, तो उसे जन-विरोधी साबित करवाएंगे।
क्योंकि अगर गलती से भी राज्य सरकार ने युवाओं को रोजगार दे दिया, तो हमारे भईया/ चचा की राजनीति कैसे चल पाएगी?
झारखंड के राजनैतिक हालात आजकल कुछ ऐसे ही हैं। और इसमें छात्रों को मोहरा बनाकर ऐसे राजनैतिक दल अपनी रोटियां सेंकने की फिराक में हैं, जिनके पाँच वर्षों के कार्यकाल में जेपीएससी की एक भी परीक्षा नहीं हो पाई।
राज्य सरकार ऐसी नीति क्यों लाई?
दो साल कोरोना में गंवाने के बाद तथा साल 2021 की नियोजन नीति रद्द होने के बाद प्रदेश सरकार के पास नियुक्ति के लिए यही साल बचा हुआ है, तो वह किसी “रमेश बाबू” को कोर्ट जाने का मौका नहीं देना चाहती है। पिछले साल, सुप्रीम कोर्ट ने 2016 वाली नियोजन नीति को असंवैधानिक बताते हुए स्पष्ट तौर पर कहा था कि राज्य सरकार सभी सीटें रिजर्व नहीं कर सकती। एक तथ्य यह भी है कि 60% से ज्यादा आरक्षण वाली कोई भी नियोजन नीति, आज तक किसी कोर्ट में टिक नहीं पाई। अगले साल चुनाव हैं तो राज्य सरकार रोजगार देने का अपना वादा किसी भी हाल में निभाना चाहती है।
रमेश बाबू एंड पार्टी को सब पता था
क्या आपको पता है कि रमेश बाबू एंड पार्टी को शुरू से पता था कि ऐसी स्थानीय नीति सिर्फ संसद ही बना सकती है और यह बात उन्होंने कोर्ट में भी लिखित रूप में दिया था (निचे देखिए), लेकिन आज उनकी पार्टी विधानसभा में सरकार से 1932 के खतियान पर सवाल पूछती है। छात्रों के तथाकथित शुभचिंतक बने इन लोगों ने कोर्ट में यह भी लिख कर दिया था कि संवैधानिक तौर पर एक भौगोलिक क्षेत्र के लोगों को आरक्षण देना, बिना संसद के अनुमोदन के, राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। लेकिन आज उसी मुद्दे पर राजनीति चल रही है।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि युवाओं के शुभचिंतक बने इन लोगों ने कोर्ट से ना सिर्फ नियोजन नीति बल्कि JSSC और JPSC के सभी विज्ञापनों को भी रद्द करवाने को कहा था, ताकि गलती से भी स्थानीय युवाओं को नौकरी ना मिल पाए। जबकि यह बात हर कोई जानता था कि 2021 की उस नीति में लगभग सभी आवेदक स्थानीय रहते।
वैसे, आज भी, अगर विपक्ष चाहे तो केंद्र सरकार से 1932 के खतियान वाली स्थानीय नीति पास करवा कर, पूरा श्रेय ले सकता है। लेकिन… फिर राजनीति कैसे चलेगी?
एक बात याद रखिये, दहेज लेना/ देना भी गैर- कानूनी है लेकिन अदालत तभी उसे अपराध मानती है, जब एक पक्ष मामले को लेकर कोर्ट जाता है। युवाओं की इस हालत के जिम्मेदार रमेश बाबू और उनकी पार्टी के लोग हैं, जो पिछली नीति को कोर्ट लेकर गए।
फिर, छात्रों के पास विकल्प क्या है?
जब तक 1932 के खतियान आधारित नीति को संसद से मान्यता नहीं मिल जाती, तब तक कोई विकल्प नहीं है। क्योंकि 60 फीसदी से ज्यादा होने पर फिर कोई रमेश जाकर इसे रद्द करवाएगा। राज्य सरकार भी इसे एक अस्थायी नीति बता रही है, जो तभी तक लागू रहेगी, जब तक खतियान आधारित स्थानीय नीति संसद से पास नहीं हो जाती।
वैसे 60% प्रतिशत में आने वाले स्थानीय लोग बाकी 40% के लिए इतने फिक्रमंद क्यों हैं? सोचिये ??
एक आखिरी सवाल… कुछ छात्र परीक्षा की तैयारी में लगे हुए हैं और कुछ सड़कों व सोशल मीडिया पर विरोध कर रहे हैं, तो उनमें से किसके चयन की ज्यादा संभावना है?
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