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बौद्धिक और सांस्कृतिक आंदोलन के प्रणेता थे डा. रामदयाल मुंडा

पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित डॉक्टर रामदयाल मुंडा झारखंड के आदिवासी समाज के शायद सबसे बड़े स्कॉलर कहे जा सकते हैं। तमाड़ के छोटे से गांव दिउड़ी के साधारण परिवार में जन्मे आदिवासी युवक राम दयाल के नामी स्कॉलर बनने की कहानी बड़ी रोचक है।

सन 2005 के अप्रैल महीने के पहले हफ्ते में उनसे इंटरव्यू लेने गया था। करीब दो-तीन घंटे बहुत सी अनऔपचारिक बातें भी हुईं। लगा ही नहीं की हम दोनों की यह पहली मुलाकात है। उनके बारे में रंगकर्मी और साहित्यकार अशोक पागल से काफी कुछ सुनता रहा था। खासकर उनके मिलनसार व्यवहार के बारे में। उस दिन लगा कि वे सही कहते थे।

बड़े दिल और दिमाग वाले
मुंडा जी का शरीर देखने में जितना विशाल था, शायद उनका दिल और दिमाग उससे कहीं ज्यादा बड़ा था। उस मुलाकात में उन्होंने अपने जीवन के लगभग सभी उतार-चढ़ाव व महत्वपूर्ण मोड़ों के बारे में काफी विस्तार से बताया था।

मुझे लगा ही नहीं कि मैं अखबार के लिए इंटरव्यू ले रहा हूँ। ऐसा लगा जैसे कोई बड़ा भाई या अभिभावक अपने छोटे भाई से बिना किसी लाग लपेट के अपने जीवन के अनुभवों को साझा कर रहा हो, ताकि वो और अन्य लोग उसके जीवन संघर्ष से सीख सकें। इतना जानकार व्यक्ति और अभिमान जरा सा भी नहीं।

अमेरिका के प्रोफेसर नार्मन जाइड ने पहचानी प्रतिभा
मुंडा जी ने बताया था कि 1963 में वे रांची कॉलेज से एंथ्रोपोलॉजी विषय से एमए की पढ़ाई कर रहे थे। उसी दौरान अमेरिका के प्रोफेसर नार्मन जाइड उन्हें एक प्रोजेक्ट के तहत अमेरिका ले गए थे। प्रोजेक्ट पूरा कर वे भारत लौटने वाले थे पर प्रो़ जाइड ने आगे पढ़ने का इंतजाम कर दिया।

कुछ माह बाद शिकागो विश्वविद्यालय में एडमिशन लिया। यहां पढ़ने के दौरान ही उन्होंने महसूस किया कि अगर कोई तीन-चार घंटे भी रोजाना पढ़े तो अच्छा रिजल्ट कर सकता है। यहां हर सप्ताह टेस्ट होते थे इसलिए परीक्षा का भय खत्म हो गया।

मिनीसोटा विश्वविद्यालय में पढ़ाया भी
1963-70 तक अमेरिका में रह कर इन्होंने एमए और पीएचडी की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद इन्हें मिनीसोटा विश्वविद्यालय में पढ़ाने का भी मौका मिला। 1983 में रांची विश्वविद्यालय के कुलपति डॉक्टर कुमार सुरेश सिंह के बुलावे पर वे रांची आए। अमेरिका के मिनेसोटा विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान के व्याख्याता के आकर्षक पद को छोडकर रांची आए डा. रामदयाल मुंडा ने छोटानागपुर राज परिवार के दामाद, आइएएस अधिकारी और लेखक डा. कुमार सुरेश सिंह के सहयोग से रांची विश्वविद्यालय में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग की स्थापना कराई। इसमें तत्कालीन दक्षिण बिहार की उपेक्षित नौ भाषाओं की पढ़ाई पहली बार शुरू हुई। 1985 से 1988 तक मुंडा रांची विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

जिस तरह टैगोर ने सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के लिए बिगुल बजाया था, उसी तरह डा. मुंडा ने भारत के आदिवासी आंदोलन को आगे बढ़ाया। झारखंड में सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक क्रांति का बिगुल फूंका। वे दो भाषाओं नागपुरी और मुंडारी में गीत लिखते थे। वे तमाड़ के पास के गांव के थे। पंचपरगनिया और कुरमाली सहित कई विदेशी भाषाओं पर उनकी पकड़ थी। 90 के दशक के अंत में भारत सरकार द्वारा बनाई गई कमेटी ऑन झारखंड मैटर के वे प्रमुख सदस्य थे। उसी दौरान उन्होंने द झारखंड मूवमेंट रेट्रोसपेक्ट एंड प्रोस्पेक्ट नामक आलेख लिखा।

माड़ के छोटे से गांव दिउड़ी में साधारण परिवार में हुआ जन्म
इस तरह तमाड़ के एक छोटे से गांव दिउड़ी का एक साधारण परिवार में जन्मा आदिवासी बच्चा अपनी मेहनत के बल पर अमेरिका में पढ़ने और पढ़ाने लगा। रांची विश्वविद्यालय का कुलपति भी बन गया।

मुंडा ने झारखंड अलग राज्य के लिए हुए आंदोलन में भी सक्रिय योगदान दिया। वे झारखंड स्वायत्त परिषद जैक में भी रहे। इनकी रोमांचक और सफल जीवन यात्रा से आज के युवा प्रेरणा ले सकते हैं।

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