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कोरोना से कैसे सुरक्षित बचे रहे पातालकोट के आदिवासी?

छिंदवाड़ा। पूरी दुनिया कोरोना वायरस की चिंता से परेशान है, लेकिन मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के एक इलाके में इसका संक्रमण अब तक नहीं पहुंच पाया। सतपुड़ा पर्वत श्रेणी की वादियों में बसे पातालकोट में सूरज की किरणें नहीं पहुंच पाती, न ही यहां आधुनिकता की रोशनी का प्रवेश हुआ है। जनजातियों की आबादी वाले इस इलाके की जीवन शैली अब भी पुरातन है।

एनबीटी की टीम इस रहस्यमय इलाके में यह पता लगाने के लिए पहुंची कि आखिर कोरोना से बचे रहने का कारण क्या है। यहां रहने वाले लोगों के साथ बातचीत से पता चला कि वे औषधियों के सहारे जीते हैं। यहां के गांवों की बसाहट ऐसी है कि सोशल डिस्टेंसिंग के लिए अलग से कोशिश नहीं करनी पड़ती। यही इनकी मजबूत इम्यूनिटी का कारण है जिसके चलते इस इलाके में जानलेवा कोरोना संक्रमण का एक भी मरीज अब तक नहीं मिला।

औषधीय पौधों का खजाना
एनबीटी की टीम ने देखा कि घाटियों के बीच बसे इन गांवों में औषधियों पौधों का खजाना है। चट्टानों से घिरे होने के कारण सीधी धूप यहां नहीं पहुंचती। छिंदवाड़ा जिले के अंतिम छोर पर पातालकोट धरातल से लगभग 3 हजार फीट नीचे बसा है। सरकारी आंकड़ों में पातालकोट में 21 गांव हैं, लेकिन करीब एक दर्जन गांवों में ही यहां बसाहट है। बाकी गांवों में कुछ झोपड़ियां हैं जहां गिने-चुने लोग रहते हैं।

ऐसे करते हैं कोरोना से बचाव
मौके पर पहुंची एनबीटी की टीम ने जब लोगों से चर्चा की तो पता चला वे नियमित जंगली अदरक का काढ़े के रूप में सेवन करते हैं। बाकी कसर यहां मौजूद औषधीय पौधे पूरी करते हैं। एक और अच्छी बात यह है कि इन गांवों में भले ही कोरोना ने अब तक दस्तक न दी हो, लेकिन संक्रमण से बचने के लिए ग्रामीणों में जागरूकता देखी जा रही है। अब तक यहां 50 प्रतिशत लोग कोरोना की वैक्सीन लगवा चुके हैं।

कोदो कुटकी खाकर जीवनयापन करते हैं ग्रामीण
पातालकोट में रहने वाले भूरिया जनजाति के हजारों लोग आज भी शहर की चकाचौंध से काफी दूर हैं। इन गांवों में आज तक रासायनिक खादों का उपयोग नहीं किया गया है। यहां के रहवासी जैविक खेती कर कोदो और कुटकी के साथ समा की फसल खेत में उगाते हैं। वे कोदो कुटकी खाकर ही अपना जीवनयापन करते हैं। रोजमर्रा के खान-पान से लेकर बीमारियों से बचने के लिए ये आदिवासी वन संपदा पर ही निर्भर करते हैं। यहां आदिवासी चिकित्सक होते हैं जिन्हें भुमका कहा जाता है। वे जड़ी-बूटियों से रोगों का इलाज करते हैं।

हाल में पहुंची बिजली-सड़क
यहां की चट्टानें ज्यादातर आर्कियन युग की हैं जो लगभग 2500 मिलियन वर्ष पुरानी हैं। कुछ साल पहले तक यहां से आने-जाने के लिए रस्सी एक मात्र जरिया था। अब गांवों तक पहुंचने के लिए सड़क बन गई है। इस इलाके की बनावट ऐसी है कि 2018 के अंत तक यहां बिजली नहीं थी। इसके बाद यहां बिजली पहुंचाने के लिए ऊर्जा विभाग के कर्मचारियों ने ट्रांसफर्मर को टुकड़े-टुकड़े कर अपनी पीठ पर ढोया थे।

कहां बसा है पातालकोट
पातालकोट दक्षिणी मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा शहर से लगभग 75 किलोमीटर दूर विशालकाय घाटी में बसा है। इस घाटी में गोंड और भूरिया जनजाति के आदिवासी रहते हैं। इस इलाके में आदिवासियों के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं भी मौजूद नहीं हैं, लेकिन यहां के रहवासी आमजनों से अधिक स्वस्थ हैं। (एनबीटी)

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