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आदिवासी युवती 14 साल की उम्र में बेची गई, 10 साल बाद लौटी

साहिबगंज। झारखंड के संथाल परगना में पड़ने वाले जिले दुमका, साहिबगंज, गोड्डा और पाकुड़ में मानव तस्करों की जड़ें काफी मजबूत हैं। इन जिलों में मानव तस्कर गांव-गांव घूमकर इस फिराक में लगे रहते हैं कि कैसे नाबालिगों के परिजनों को बड़े शहरों में काम दिलाने का प्रलोभन देकर जाल में फंसा लें।

गरीबी भी ऐसी कि परिजन पेट की आग बुझाने के लिए इसके झांसे में आ जाते है। बस क्या, मानव तस्कर बड़े शहरों में ले जाकर नाबालिगों को एजेंट के हाथ बेच देते हैं। कुछ इस तरह लाड-प्यार पाने के उम्र में नाबालिगों को मां-बाप का साथ छूट जाता है। और वर्षों तक यातना झेलना इनकी बेवशी बन जाती है। कुछ तो वर्षों बाद घर लौटकर आ जाते हैं, कुछ लौटकर भी नहीं आ पाते। इधर, मां-बाप उनके इंतजार में तिल-तिल तड़पने को मजबूर होते हैं।

साहिबगंज जिले के आदिवासी बहुल प्रखंड पतना के कल्याणपुर गांव की कापरे बास्की की कुछ इसी तरह की दर्दभरी कहानी है। 14 साल की उम्र में लखीपुर गांव के रंजीत सोरेन ने वर्ष 2011 में उसे दिल्ली ले जाकर एजेंट के हाथों बेच दिया। कापेर को 5000 रुपये वेतन पर काम दिलाने का प्रलोभन देकर दिल्ली ले जाया गया था, लेकिन दिल्ली में उसे तरह-तरह की यातनाएं मिलीं। कई घरों में काम करना पड़ा। वो तो भला हो उसके आखिरी मालिक का, जिसको कापरे बास्की पर दया आई और उन्होंने घर का पता लगाकर ट्रेन से कापरे को साहिबगंज भिजवा दिया. 10 वर्ष बाद कापरे घर पहुंची.

कापेर बास्की का भाई सागेन बास्की का कहना है कि उसकी बहन‌ संथाली तक बोलना भूल‌ गयी है। उसे वह फिर से संथाली भाषा बोलना सीखा रहा है। बहन के आने से घर में खुशियां लौट आयी हैं।

वहीं कापरे के साथ दिल्ली गयी पास के गांव बांधटोला के सागर सोरेन की बेटी फुल्लो सोरेन आज तक घर नहीं लौट पाई है। पंचायत की मुखिया सालोनी मुर्मू बताती हैं कि कई बच्चियां वर्षों पहले बड़े शहरों में गयीं, परन्तु आजतक नहीं लौटी पाई हैं। (News18)

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