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आजादी के 75 सालों बाद, बस्तर में बदलाव की बयार

रायपुर। आजादी के 75 सालों बाद, बस्तर के जंगलों में बदलाव दिख रहा है। विकास की प्रक्रिया में देश के अन्य हिस्सों से पिछड़ गए इस क्षेत्र में सड़क, बिजली और पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाएं पहुंचने लगी हैं। इस क्षेत्र के मुख्यधारा से कटे होने के कारण ही लोकतंत्र विरोधी ताकतों को यहां जड़ें जमाने का मौका मिला। 75वें वर्ष में नक्सल हिंसा से कराहते रहे बस्तर से जमीनी स्तर पर बदलाव का संदेश आया है। इस बार उन जंगलों में तिरंगे की शान दिखी, जहां पहले हिंसा के जोर पर नक्सली काला झंडा फहराकर देश के संविधान का अपमान करते थे।

चार दशक की हिंसा छोड़कर विकास की राह पर बढ़ रहे बस्तर की सुहानी तस्वीर उम्मीदें जगा रही है। आदिवासी भी अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए सपने गढ़ रहे हैं। जहां कभी बंदूक की गूंज और बारूद की गंध थी, वहां भी अब तिरंगा शान से लहराने लगा है। नक्सल इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, बिजली और सड़क आदि की बुनियादी सुविधाएं पहुंचाने के लिए कई जवानों ने अपने प्राणों की आहुति दी है।

बीते कुछ वर्षों में केंद्र व राज्य सरकारों ने मिलकर नक्सल हिंसा को काबू में करने में सफलता हासिल की है। इसी का नतीजा यह रहा कि अबूझमाड़ के 50 से ज्यादा पहुंचविहीन स्कूलों में नदी-नाले पार करके शिक्षक पहुंचे और तिरंगा फहराया। बच्चों ने इस मौके पर सारे जहां से अच्छा गीत सुनाया। नक्सलगढ़ के गांवों में इस बार स्वतंत्रता दिवस को लेकर अजब उत्साह दिखा। यह नक्सल हिंसा से आजादी का भी उत्सव रहा।

बीते कुछ वर्षों में फोर्स ने उन इलाकों में पैठ बनाई है, जो पहले पहुंचविहीन माने जाते थे। जंगल में फोर्स के बढ़ते कदमों के साथ सड़कें विकास लेकर पहुंचने लगी हैं। राशन के लिए मीलों पैदल चलने को मजबूर आदिवासियों के गांवों में दुकानें खुल रही हैं। आजादी के 75वें में साल में प्रवेश के मौके पर कई गांवों में बिजली पहुंची तो आदिवासियों ने अपनी बोली के लोकगीतों में देश की आजादी का संदेश गाकर समूह नृत्य किया।

बस्तर को प्रकृति ने अनमोल खजाना दिया है। नक्सलवाद के कारण बदनाम रहे बस्तर के जंगलों में मौजूद झरने, गुफाएं, नदी-नाले, पुरातात्विक वैभव, प्राचीन मंदिर, लोक संस्कृति व परंपराएं दर्शनीय हैं। आजादी के संदेश के साथ ही बस्तर में पर्यटन विकास की संभावनाओं को नए आयाम मिले हैं। बस्तर के नक्सल प्रभावित जिलों में सड़कों और पुलों का जाल बिछ गया है।

बंद रास्ते खुले तो आवागमन शुरू हुआ और हाट-बाजारों में रौनक आ गई है। हिंसा व शोषण के शिकार आदिवासी अब आजादी के सही मायने समझ गए हैं। कहना गलत नहीं होगा कि आजादी का यह पर्व जंगल में नया सवेरा साथ लेकर आया। (साभार: जनधारा)

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